//घुप्प अँधेरा, उफनता तूफ़ान, कर्कश हवाओं कि साँय-साँय, पागल चड चडाती दरख्तों की शाखाएं. किसी भी क्षण उसके सर पर आघात करने को उदद्यत, पर उसके कदम अनवरत गति से बढ़ते जा रहे हैं. काले स्याह मेघ कोप से उत्तेजित हो परस्पर टकरा टकरा कर दहाड़ रहे हैं, जिसकी आवाज ने उन दोनों की साँसों की आवाज को निगल लिया है. दामिनी थर्रा रही है गिडगिडा रही है, उसके चेहरे को देखने को व्यग्र शनै -शनै अपना प्रकाश फेंक रही है. पर उसका मुख घूंघट से ढका है, हाँ एक नन्ही सी जान एक कपडे में लिपटी हुई उसकी छाती से चिपटी हुई दिखाई दे रही है. उसे देख कर सारी कायनात विव्हल हो उठी, अम्बर ने भी अश्रुओं की झड़ी लगा दी कि किसी तरह उसका दिल द्रवित हो और उसके पाँव वापस लौट आंए. पर उसे क्या पता कि ये तूफ़ान तो कुछ भी नहीं उससे बड़ा तूफ़ान तो कब से उसके ह्रदय में तबाही मचा रहा है धन से तो वो पहले से ही वंचित थी अब तन और मन से भी हो गई. बस किस्मत से लड़ना ही उसकी नियति बन चुकी थी अम्बर के ये आंसू क्या हैं उसके सम्मुख, जो उसकी आँखों और आँचल से विस्तृत सागर बह रहा है लगातार कर्ण पटल पर आघात करता ये शोर उसको उसकी बेइज्जती और मजबूरी का उपहास करता प्रतीत हो रहा है. और वो चुपचाप उसी आसमान, जिसके नीचे उसकी बेबसी तार तार हुई थी को साक्षी मान कर रुक जाती है. उस झाड़ी की ओर जहां वो अपनी विदीर्ण छाती से मजबूरियों और बदनामियों की गठरी का बोझ उतार सके !!//
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उमा शंकर मिश्र जी बहुत बहुत बहुत हार्दिक आभार
बहुत- बहुत हार्दिक आभार योगराज जी त्रुटी को इंगित करने के लिए बस कुछ सामजिक घ्रणित घटनाओं से विह्वल मन के भावों को उकेरती चली गई इसको विशेषतया कविता या पद का या कहानी का क्या रूप देना उस और ध्यान ही नहीं दिया चलिए अपेक्षित सुधार कर देती हूँ |
गद्य को कविता में ढालने का अच्छा प्रयास
संक्षिप्त में दहसत पूर्ण प्रकृति वर्णन के साथ
एक बड़ी कहानी को संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत की
बेबसी की कहानी कहती प्रस्तुति
मर्मस्पर्शी
आद. राजेश कुमारी जी,
मैं कल से आपकी इस रचना को न जाने कितनी दफा पढ़ चुका हूँ. लेकिन इस में मुझे कहीं "कविता" तो नज़र ही नहीं आई. एक पैरा गद्य है, जिसको टुकड़ों में बाँट कर पद्य की शकल देने की कोशिश की गई है. मुझे तो ये किसी घटना के विवरण जैसा लग रहा है कविता हरगिज़ नहीं. कविता बेशक छन्दमुक्त ही क्यों न हो उसमे शब्दविन्यास की एक कला होती है, प्रवाह होता है, जो इस रचना से बिलकुल नदारद है.मैंने इसको दोबारा पैरे में बदला है, आप स्वयं पढ़कर निर्णय करें.
//घुप्प अँधेरा, उफनता तूफ़ान, कर्कश हवाओं कि साँय-साँय, पागल चड चडाती दरख्तों की शाखाएं. किसी भी क्षण उसके सर पर आघात करने को उदद्यत, पर उसके कदम अनवरत गति से बढ़ते जा रहे हैं. काले स्याह मेघ कोप से उत्तेजित हो परस्पर टकरा टकरा कर दहाड़ रहे हैं, जिसकी आवाज ने उन दोनों की साँसों की आवाज को निगल लिया है. दामिनी थर्रा रही है गिडगिडा रही है, उसके चेहरे को देखने को व्यग्र शनै -शनै अपना प्रकाश फेंक रही है. पर उसका मुख घूंघट से ढका है, हाँ एक नन्ही सी जान एक कपडे में लिपटी हुई उसकी छाती से चिपटी हुई दिखाई दे रही है. उसे देख कर सारी कायनात विव्हल हो उठी, अम्बर ने भी अश्रुओं की झड़ी लगा दी कि किसी तरह उसका दिल द्रवित हो और उसके पाँव वापस लौट आंए. पर उसे क्या पता कि ये तूफ़ान तो कुछ भी नहीं उससे बड़ा तूफ़ान तो कब से उसके ह्रदय में तबाही मचा रहा है धन से तो वो पहले से ही वंचित थी अब तन और मन से भी हो गई. बस किस्मत से लड़ना ही उसकी नियति बन चुकी थी अम्बर के ये आंसू क्या हैं उसके सम्मुख, जो उसकी आँखों और आँचल से विस्तृत सागर बह रहा है लगातार कर्ण पटल पर आघात करता ये शोर उसको उसकी बेइज्जती और मजबूरी का उपहास करता प्रतीत हो रहा है. और वो चुपचाप उसी आसमान, जिसके नीचे उसकी बेबसी तार तार हुई थी को साक्षी मान कर रुक जाती है. उस झाड़ी की ओर जहां वो अपनी विदीर्ण छाती से मजबूरियों और बदनामियों की गठरी का बोझ उतार सके !!//
रेखा जोशी जी बहुत बहुत हार्दिक आभार रचना के मर्म ने आपको छुआ
राजेश जी ,हमारे समाज का भयानक चेहरा लिए हुए दर्दनाक रचना ,मन व्यथित हो उठा ,आभार |
आज कल के समाज की ये कुछ ऐसी कडवी सच्चाई हैं की किसी ना किसी माध्यम से रोज रूबरू होती हैं चिंतनीय विषय ये जरूर है पर अलबेला जी आप अपना हास्य बरकरार रखिये वो आपकी पहचान जो है एनी वे हार्दिक आभार बहुत ख़ुशी हुई आपकी टिपण्णी पढ़कर
आपने तो आज द्रवित कर दिया राजेश कुमारी जी,
इतनी वेदना और संवेदना मन में भर दी आपकी इस अनुपम कविता ने कि एक हास्यकवि भी गम्भीर हो गया .
बहुत बहुत साधुवाद आपको........
आशीष यादव जी आप सही कहते हैं ये एक घ्रणित सच्चाई का ही चेहरा है बहुतबहुत हार्दिक आभार इस मर्म को महसूस करने के लिए
प्रदीप कुमार कुशवाह जी हार्दिक आभार कविता की आत्मा को महसूस करने पर
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