कहाँ गई वो मेरे देश की खुशबु
जिसमे सराबोर रहते थे
इंसानों के देश प्रेम के जज्बे ,
कहाँ गई वो माटी की सुगंध
जिससे जुडी रहती थी जिंदगी
कहाँ गए वो आँगन
जिनमे हर रोज जलते थे
सांझे चूल्हे
जहां बीच में रंगोली सजाई जाती थी
जो परिचायक थी
उस घर की एकता और सम्रद्धि की
जिसमे खिल खिलाता था बचपन
लगता है वक़्त की ही
नजर लग गई उसको
आधुनिकता नामक विष
घुल गया वहां के परिवेश में
विघटित हो गए आँगन
विघटित हो गए
बंधन
हर जगह बीच में
दीवार नजर आती है
बस अहम् जी रहा है
कहाँ जा रही हैं
इस युग की सीढियां
पता नहीं ऊपर या नीचे !!!
Comment
हाँ अविनाश जी सही कह रहे हैं ये अहम् की कालिमा में छिप गए हैं
बहुत बहुत शुक्रिया योगी सारस्वत जी
हाँ संदीप कुमार जी हमे आधुनिकता के सही मायने समझने होंगे बारूद के ढेर पर बैठ कर उसे ही कुरेद रहे हैं हम संवेदन हीनता बढ़ रही है व्यवहार में
कहाँ गए वो आँगन
जिनमे हर रोज जलते थे
सांझे चूल्हे .....ye rat ki kalima ke aagosh me ja chuke hai.
हर जगह बीच में
दीवार नजर आती है
बस अहम् जी रहा है
कहाँ जा रही हैं
इस युग की सीढियां
पता नहीं ऊपर या नीचे !!!
bahut sundar chitran aaj ke samaaj ka
is yug ki seedhiyon ki jaanch chal rahi hai mahodyaa ji ...................aadhunikta ke naam par na jaane kya kya ho rha hai ........................par wo adhunikta nahi mahaj ashbhyta hai ...............sadhuwaad aapko sundar rachna hetu ......bahut bahut badhai
हार्दिक आभार अलबेला जी
हार्दिक शुक्रिया डा.सूर्या बाली जी
ऊपर तो नहीं जा रही है राजेश कुमारी जी,
ये पक्का है
हाँ नीचे जाने के आसार लग रहे हैं.........
बहरहाल इस उत्तम रचना के लिए अभिनन्दन स्वीकार करें............
__जय हो !
कहाँ जा रही हैं
इस युग की सीढियां
पता नहीं ऊपर या नीचे !!
....राजेश कुमारी जी बहुत सुंदर भाव लिए हुए ये रचना। बहुत अच्छी लगी । बहुत बहत बधाई !!
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