कहाँ गई वो मेरे देश की खुशबु
जिसमे सराबोर रहते थे
इंसानों के देश प्रेम के जज्बे ,
कहाँ गई वो माटी की सुगंध
जिससे जुडी रहती थी जिंदगी
कहाँ गए वो आँगन
जिनमे हर रोज जलते थे
सांझे चूल्हे
जहां बीच में रंगोली सजाई जाती थी
जो परिचायक थी
उस घर की एकता और सम्रद्धि की
जिसमे खिल खिलाता था बचपन
लगता है वक़्त की ही
नजर लग गई उसको
आधुनिकता नामक विष
घुल गया वहां के परिवेश में
विघटित हो गए आँगन
विघटित हो गए
बंधन
हर जगह बीच में
दीवार नजर आती है
बस अहम् जी रहा है
कहाँ जा रही हैं
इस युग की सीढियां
पता नहीं ऊपर या नीचे !!!
Comment
बहुत बहुत शुक्रिया गौरव जी
आदरणीया राजेश जी, मैंने खुद इस अंधी आधुनिक दौड़ का हमेशा विरोध किया है.......बहुत अच्छी रचना....बधाई.....
बहुत ख़ुशी हुई आपकी प्रतिक्रिया जानकर हार्दिक आभार
हार्दिक आभार रेखा जोशी जी
Rajesh ji
लगता है वक़्त की ही
नजर लग गई उसको
आधुनिकता नामक विष
घुल गया वहां के परिवेश में
विघटित हो गए आँगन
विघटित हो गए
बंधन ,bahut khub ,badhai
हार्दिक आभार प्रदीप कुमार जी
आदरणीय राजेश कुमारी जी, सादर
आधुनिकता की दौड़ में आये परिवर्तन के प्रति चिंता स्वाभाविक है.
बधाई.
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