(नोट: अपने हिंदुस्तान में ही हिंदी को हर कदम पर अपमानित होना पड़ रहा है ये हिंदुस्तान के अस्तित्व पर ये सवालिया निशान लगता है)
मैं अपने ही घर में कैद हूँ
मुझे अपनों से ही आजादी चाहिए
रोती बिलखती सर पटकती रही मैं
अब मेरी आवाज को एक आवाज चाहिए
जी रही हूँ कड़वे घूँट पीकर
न मेरी राह में कांटे उगाइये
मैं अपने ही घर में कैद हूँ
मुझे अपनों से ही आजादी चाहिए
पराये मेरे दुःख पे आंसू बहा रहे हैं
मेरे जख्मों पे फिर भी मरहम लगा रहे हैं
जिन्हें पाल पोसकर नाम दिया अपना
मरघट में वो ही मुझे जला रहे हैं
बिलायती बहू के जख्मों से नहीं डरती मैं
अपनों की नजरों से मरती हूँ मैं
सामर्थ मिल रही मेरे पगों को फिर भी
हर तूफान से अकेले ही लड़ती हूँ मैं
मैं अपने ही घर में कैद हूँ
मुझे अपनों से ही आजादी चाहिए
.रचना - राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी''
Comment
श्री राजेंद्र कुमार जी हिंदी के प्रति आपकी भावना को...mera bhi सलाम..
बहुत सुन्दर सार्थक प्रस्तुति हिंदी सचमुच में सब रुकावटों के बावजूद खुद अपना रास्ता बनाकर आगे बढ़ रही है जागरूक करती सुन्दर सन्देश देती हुई इस पोस्ट के लिए बहुत बधाई
श्री राजेंद्र कुमार जी हिंदी के प्रति आपकी भावना को सलाम
भले ही अपने घर में हिंदी को वो सम्मान नहीं मिला ...परन्तु आज की परिस्थियों में आर्थिक जंग के दौर में हिंदी को अपनाना
लोगों की मज़बूरी बनते जा रही है ...हिंदी स्वयं रास्ता बनाते आगे बढ़ते चली जा रही है अमेरिका चीन जापान जैसे देश हिंदी सिखने की दिशा में अग्रसर हैं आपको इस बढ़िया रचना के लिए बधाई ..आओ हम सब मिल कर हिंदी के राहों में फूल बिछाएं
हिंदी मय रहेगा हिंदुस्तान हमारा .... जय हिंद
सम्मान्य राजेन्द्र सिंह जी,
हिन्दी के दर्द को बहुत मार्मिक शब्दों में अभिव्यक्त किया आपने...अभिनन्दन
परन्तु ये एक सुखद अनुभव भी है हमें कि हिन्दी अब उतनी बुरी दशा में नहीं है. बहुत तीव्रता से हिन्दी समूचे विश्व में फ़ैल रही है
सादर
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