वर्षा के दो रूप (मदन छंद या रूपमाला पर मेरा पहला प्रयास )
(हर पंक्ति में २४ मात्राएँ ,१४ पर यति अंत में गुरु लघु (पताका) २१२२ ,२१२२ ,२१२२ ,२१ संशोधित मदन छंद )
घनन घन बरसे बदरिया ,झूमती हर डाल|
भीगता आँचल धरा का ,जिंदगी खुश हाल|
प्यास फसलों की बुझी अब, आ गए त्यौहार-
राग मेघ मल्हार सुन-सुन, हृदय झंकृत तार||
हैं बरसते घन घुमड़ कर, दामिनी दहलाय|
चरमराकर वृक्ष गिरते, पत्र फट फट जाय|
इक परिंदा देख रोए, कित गया घर बार-
गाँव सब डूबे गले तक, त्राहिमाम पुकार||
Comment
राजेशकुमारी जी
सादर. वर्षा ऋतू पर सुन्दर छंद. बधाई.
हार्दिक आभार डा .प्राची
बहुत खूबसूरत रूपमाला छंद आदरणीया राजेश कुमारी जी... हार्दिक बधाई
आपका स्वागत है आदरेया राजेश कुमारी जी !
अम्बरीश जी आपके सुझाव सर आँखों पर सच में इन संशोधनों से गेयता निखर गई है
भ्रात अरुण जी, यह कुछ भी तो कठिन नहीं! वरन बहुत आसान है ...यदि आप चाहें तो आप भी रूपमाला छंदों पर हाथ आजमा सकते हैं ! सस्नेह
धन्यवाद आदरेया राजेश कुमारी जी, आपने मेरे सुझाव का मान रखा! अभी भी इन छंदों में कुछ सुधार अपेक्षित है अतः इनमें शिल्प सम्बन्धी सुधार हेतु सुझाव प्रेषित है !
//घनन घन बरसे बदरिया ,झूमती हर डाल
भीगता आँचल धरा का ,जिंदगी खुश हाल
बुझ गई प्यास फसलों की ,कृषक के त्यौहार
मेघ मल्हार सरिता सुन ,झंकृत ह्रदय तार ||//
घनन घन बरसे बदरिया ,झूमती हर डाल|
भीगता आँचल धरा का ,जिंदगी खुश हाल|
प्यास फसलों की बुझी अब, आ गए त्यौहार-
राग मेघ मल्हार सुन-सुन, हृदय झंकृत तार||
// उमड़ -घुमड़ कर घन बरसे ,दामिनी दहलाय
चरमराकर गिर गए वृक्ष ,फट गए पत्र पाय
इक परिंदा देख रोए , कित गया घर बार
गाँव सब डूबे गले तक, त्राहिमाम पुकार ||//
हैं बरसते घन घुमड़ कर, दामिनी दहलाय|
चरमराकर वृक्ष गिरते, पत्र फट फट जाय|
इक परिंदा देख रोए, कित गया घर बार-
गाँव सब डूबे गले तक, त्राहिमाम पुकार||
सादर
हार्दिक आभार अरुण शर्मा जी छंद सराहने के लिए
आदरेया मुझे भ्राताश्री अम्बरीश जी की तरह ज्ञान नहीं है, परन्तु मुझे पढ़ कर बहुत अच्छी लगी आपकी रचना. बधाई
आपका हार्दिक स्वागत है ! शुभकामनाएं !
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