हिमालय की मौन आँखों में
शान्त माहौल के परिवेश में
कुछ प्रश्नों को देखा है मैंने ।
खड़ा तो है अडिग पर
उसके माथे की सलवटों पर
थकावट के अंशों को देखा है मैंने ।
प्रताड़ित होता है वो तो क्यों ?
नहीं समझते हो तुम
क्रोधित हो वो कैसे हिला दे
धरती को ये देखा है मैंने ।
जब बहती हुयी पवन कुछ
कहकर पैगाम सुनाती है तो
पैगाम -ए - दर्द को छलकते
धरती पर बहते देखा है मैंने ।
कभी ज्वाला सा जल जाता है
और कभी नदियाँ बन बह जाता है
उसे पिघलते रोते देखा है मैंने ।
भयानक क्रोध में तपते
बादल की तरह फटकर
तबाही फैलाते हुए देखा है मैंने ।
अभिमान करो ना प्रतिकार करो
दर्द से बिलखते पिघलते उस
अटूट ह्रदय को टूटते देखा है मैंने ।
- दीप्ति शर्मा
Comment
आदरणीय राजेश कुमार झा जी ... आदरणीय अविनाश जी
बहुत बहुत आभार ....यूँ ही मार्गदर्शन करते रहें शुक्रिया
अभिमान करो ना प्रतिकार करो
दर्द से बिलखते पिघलते उस
अटूट ह्रदय को टूटते देखा है मैंने ।
बहुत सुंदर..कविता पसंद आयी..वाह दीप्ति जी ,बधाई
बहुत सुंदर एवं शोभन रचना
आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद जी ,, आपको कविता पसंद आयी ,, शुक्रिया ,, आपके प्रोत्साहन के लिए बहुत आभारी हूँ ।
आदरणीया रेखा जोशी जी ,, आपको कविता पसंद आयी ,, शुक्रिया ,, आपके प्रोत्साहन के लिए बहुत आभारी हूँ ।
आदरणीया राजेश कुमारी जी ,, आपको कविता पसंद आयी ,, शुक्रिया ,, आपके प्रोत्साहन के लिए बहुत आभारी हूँ ।
अभिमान करो ना प्रतिकार करो
दर्द से बिलखते पिघलते उस
अटूट ह्रदय को टूटते देखा है मैंने । ,वाह दीप्ति जी बहुत बढ़िया भाव ,बधाई
जब दर्द हद से गुजर जाता है तो हिमालय भी सिहर जाता है ----बहुत सुन्दर भाव बहुत सुन्दर कविता लिखी है प्रिय दीप्ती जी
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