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ये कहाँ खो गई इशरतों की ज़मीं;
मेरी मासूम सी ख़ाहिशों की ज़मीं; (१)

फिर कहानी सुनाओ वही मुझको माँ,
चाँद की रौशनी, बादलों की ज़मीं; (२)

वक़्त की मार ने सब भुला ही दिया,
आसमां ख़ाब का, हसरतों की ज़मीं; (३)

जुगनुओं-तितलियों को मैं ढूंढूं कहाँ,
शह्र ही खा गए जंगलों की ज़मीं; (४)

दौड़ती-भागती ज़िंदगी में कभी,
है मुयस्सर कहाँ, फ़ुर्सतों की ज़मीं; (५)

गेंहू-चावल उगाती थी पहले कभी,
बन गई आज ये असलहों की ज़मीं; (६)

क्या बताऊँ मैं 'वाहिद' तमन्ना कोई,
अब तलक दूर है मन्नतों की ज़मीं; (७)

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Comment by Ashok Kumar Raktale on September 4, 2012 at 12:51pm

जुगनुओं-तितलियों को मैं ढूंढूं कहाँ,

शह्र ही खा गए जंगलों की ज़मीं; (४)

बदलते परिवेश पर सुन्दर गजल, मुझे गजल की तकनीक को ज़रा भी जानकारी नहीं है किन्तु भाव और प्रवाह बहुत ही सुन्दर लगा. बधाई स्वीकारें.

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on September 4, 2012 at 12:49pm

मुझ गरीब से समीक्षा कहाँ होती है मित्र मैं तो बस सराहना जनता हूँ

सोज की खोज में निकला तो मैंने जाना है
जलाना दिल किसी का खुद का दिल जलाना है  ..............दीप................

आप कमाल लिखते हैं बस यूँ ही लिखते रहिये स्नेह और सहयोग बनाये रखिये

Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on September 4, 2012 at 12:36pm

मित्र दीप जी!

आपकी सार्थक समीक्षात्मक 'ओबीओ' प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक आभारी हूँ! :-) ग़ज़ल को आपने मान दिया मुझे दिली ख़ुशी है! साभार,

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on September 4, 2012 at 12:21pm

ये कहाँ खो गई इशरतों की ज़मीं;
मेरी मासूम सी ख़ाहिशों की ज़मीं; (१) क्या मासूमियत के साथ दिल की ख्वाहिशों का खाका खींचा है संदीप भाई वाह

फिर कहानी सुनाओ वही मुझको माँ,
चाँद की रौशनी, बादलों की ज़मीं; (२) वाह वाह क्या बात है बादलों की जमीं ,,,,,लेकिन  अब शायद माँ भी बदल रही है इस परिवेश में उसे कहानियाँ सुनाने का हुनर ही नहीं आ रहा है

वक़्त की मार ने सब भुला ही दिया,
आसमां ख़ाब का, हसरतों की ज़मीं; (३) वक़्त की मार के आगे सब प्रयास बौने हो जाते हैं वाह मित्र वाह 

जुगनुओं-तितलियों को मैं ढूंढूं कहाँ,
शह्र ही खा गए जंगलों की ज़मीं; (४)  वाह वाह वाह ये शेर नहीं सवा शेर है ..............सच कहा एकदम जंगलों की जमी तो रह ही नहीं गयी

दौड़ती-भागती ज़िंदगी में कभी,
है मुयस्सर कहाँ, फ़ुर्सतों की ज़मीं; (५) वाह वाह जिन्दगी की रफ्तार में फुर्सत के कुछ पल किसे नसीब हो रहे हैं अब किसी को नहीं सब व्यस्त है 

गेंहू-चावल उगाती थी पहले कभी,
बन गई आज ये असलहों की ज़मीं; (६)  आतंक यूँ पसरा है के आज के हकीकत यही लगती है वाह वाह

क्या बताऊँ मैं 'वाहिद' तमन्ना कोई,
अब तलक दूर है मन्नतों की ज़मीं; (७) वाह बहुत खूब

इस मुसलसल ग़ज़ल के लिए आपके हर शेर पे दिल से  दाद पे दाद है क़ुबूल कीजिये भाई

Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on September 4, 2012 at 11:11am

भाई फूल सिंह जी,

आपका हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ!

Comment by PHOOL SINGH on September 4, 2012 at 10:51am

संदीप जी नमस्कार,,

बहुत ही भावपूर्ण रचना......बधाई..

फूल सिंह

Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on September 4, 2012 at 10:38am

भाई वीनस जी,

मुझसे सबसे ज़्यादा इंतज़ार आपकी  ही प्रतिक्रिया का ही रहता है और डर भी आपही से रहता है ;-)) ! ओबीओ पर प्रथमागमन के वक़्त मैं जिस स्थिति में था और अब जो 'ट्रांसफॉर्मेशन' हुआ है उसमें आपका ही योगदान सर्वोपरि है! आपने बराबर जिस तरह से ग़ल्तियों को इंगित किया और अच्छा करने को प्रेरित किया यह उसी का परिणाम है! आपने सराहा रचना को आपका अनुमोदन प्राप्त हुआ इससे बढ़ कर मुझे क्या ख़ुशी हो सकती है! आपकी दुआ वास्तव में आमीन हो इसमें कोर क़सर नहीं छोडूंगा! आभार सहित,

Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on September 4, 2012 at 10:32am

आदरणीय सौरभ भईया,

आप जैसे सुधिजनों की संगत और मार्गदर्शन बना रहे और मैं अपने स्तर से अपना श्रम करता रहूँ तो आगे का रास्ता खुलेगा ही और मैं एकाध सीढ़ियाँ चढ़ ही जाऊंगा बस कोशिश ये बनी रहती है कि जहाँ पहुँच चुका हूँ अब वहां से नीचे न उतरना पड़े और इस स्तर तक पहुंचना उतना मुश्किल नहीं था मगर अब इसे यथावत बनाये रखना बहुत कड़ा इम्तिहान लेगा! मुक्त कंठ से सराहना के लिए कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ! सादर,

Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on September 4, 2012 at 10:27am

भाई विवेक जी,

आपकी क़ीमती टिप्पणी प्राप्त हुई! ख़ुशी है कि आप को ग़ज़ल पसंद आई! साभार,

Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on September 4, 2012 at 10:25am

आदरणीय बाग़ी जी,

चौथा शे'र सबसे पहले बना था और इसमें रदीफ़ चुनने की पूरी छूट थी और  मैंने एक क़दम आगे बढ़ते हुए मुश्किल वाले को ही चुना क्यूंकि उसे भाव पक्ष में बेहतरी की पूरी गुंज़ाइश थी! आपका आभारी हूँ अनमोल प्रतिक्रिया हेतु!

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