आज सुबह-सुबह बड़कऊ का बेटा कविता ’पुष्प की अभिलाषा’ पर रट्टा मार रहा था --"चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ.. ." मैथिली शरण गुप्त जी ने बाल कविता लिखी है. शब्दों का चयन, सन्निहित भाव सबकुछ कालजयी है. आँखो को मूँदे कविता को आत्मसात करता हुआ मन ही मन राष्ट्रकवि को नमन किया. अभी मन के दरवाजे पर कुछ और शुद्ध विचार दस्तक देते कि घर के दरवाजे पर दस्तक हुई. सारे शुद्ध विचार एक बारगी हवा हो गये.. "कौन कमबख़्त सुबह-सुबह फ़ोकट की चाय पीने आ गया, यार ?" झुंझलाता-झल्लाता दरवाजा खोला तो लालाभाई मुहल्ले के दो लोगों के साथ साक्षात थे. झल्लाहट की झलक तुरत ही चेहरे पर आ गयी. लालाभाई ठहरे पारखी. झट से ताड़ लिया उन्होंने. मुस्कुराते हुए बोले, "अन्दर आने दोगे या दरवाजे से ही जय राम जी की..?"
मैं सकपकाता हुआ झट से एक ओर हो गया. मूँबाये उस जमावड़े को घर में जमते देख रहा था. मेरे असमंजस को दूर करते हुए लालाभाई ने बात शुरु की, "..मुहल्ले में इन लोगों का एक कवि-सम्मेलन कराने का विचार है..." फिर धीरे से आँख मारते हुए आगे कहा, "अब तुम भी चूँकि कवि हो ही गये हो ! सो, मै इन सबको तुम्हारे पास ले आया.."
सही कहिये तो मैं कुछ और चौडा हो गया. तुरत ही अन्दर की तरफ़ चाय के साथ कुछ बिस्कुट लाने की आवाज दी. यानि अब मुहल्लेवाले भी मुझे कवि समझने लगे हैं ! वाह वा ! इतना तो पता था कि साक्षात वाहवाही सुनने का एक अलग ही आनंद है. अलबत्ता, इस आनन्द का मज़ा अब मुझे भी मिलने वाला है, खुशी की बात ये थी !
Comment
धन्यवाद संदीप जी, आपने रचना को सहारा उसके लिये में आभारी हूँ,
भैया आपने अनेक बिम्बों की बात की है, एक लेखक के तौर पर बस ये कौतुहल है कि किस बिम्ब ने आपको सबसे अधिक गुदगुदाया है..
सादर
आपका स्वागत है !
धन्यवाद आदरणीय अम्बरीष जी, आपके विचारों से ही लेखन में उत्तरोत्तर निखर लाने का प्रयास जारी रहेगा. सादर
वाह वाह वाह
क्या बात है आदरणीय इतना खूबसूरती के साथ आपने बिम्ब प्रस्तुत किये हैं के बस मजा आ गया
हास्य से भरपूर इस रचना के लिए बहुत बहुत बधाई आपको
गजब कर डाला भैया का कहें अब
आय हय हय हय
लाजवाब
बहुत खूब
........................
//लालाभाई तो काफ़ी देर तक सशंकित रहे, कि कहीं बनवारीजी किसी कवि की ज्यादा वाहवाही पर नमस्कारी न मांग बैठें. //
हा हा हा हा ......प्रिय भाई शुभ्रांशु जी ! आपकी इस हास्य कथा ने बहुत आनंदित किया ...बहुत-बहुत बधाई मित्र .....और हाँ ! आदरणीय सौरभ जी के कथन को मेरा भी अनुमोदन है !
सर्वप्रथम आदरणीय सौरभ भइयाजी को सादर धन्यवाद कि मेरी हास्य रचना को उन्होंने पूरा पढ़ा और एक विस्तृत टिप्पणी की है.
अन्त मे कहे गये उनके सुझाव को अवश्य ही ध्यान में रखूँगा. मेरे लिये यह सीखने का ही दौर है.
इस मंच पर मेरी अबतक की रचनाएँ किसी एक बिन्दु पर न हो कर किसी घटनाक्रम को टोटैलिटी मे दिखाती हुई रही हैं. इसीलिये वे तनिक लम्बी जाती हैं. लेकिन यह एक साहित्यिक मंच है इसलिये मुझे पाठकों से सादर सहयोग की उम्मीद रहती है.
मुझमें तथा मेरी रचना में विश्वास तथा सम्भावना देखने के लिये एक बार पुनः धन्यवाद. आपसभी पाठकों से हमेशा ऐसे ही सहयोग का आकाक्षीं रहता हूँ...... आभार..
हास्य-व्यंग्य की रचनाएँ अपने आप में एक विशिष्ट समझ की अपेक्षा रखती हैं. इस विधा की रचनाओं के प्रति मेरे मन में इसलिये भी आदर भाव हुआ करता है कि सामान्य रचनाकार भले ही अन्य विधाओं में प्रयास कर ले किन्तु, हास्य और व्यंग्य में बिना कथ्य तथा तथ्य पर पूरी पकड़ के तथा बिना हास्यास्पद हुए कुछ कह-लिख पाना उतना सहज नहीं हुआ करता, जहाँ पाठक रचना में वर्णित घटनाओं और विन्दुओं के साथ स्वयं को बहता हुआ अनुभव करे. यही कारण है कि इस रस की रचनाओं का निर्वहन छुरस्यधारा निशिता दुरत्यया अर्थात छुरे की धार पर चलने के समान हुआ करता है. कहना न होगा कि हास्य-व्यंग्य की रचनाएँ एक रचनाकार से रचनाकर्म में अकथ अनुशासन की अपेक्षा रखती हैं.
इस परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत हास्य रचना ’कवि-सम्मेलन का आयोजन’ को देखा जाय तो रचना में जिन विन्दुओं और इंगितों को साझा किया गया है वे आज के साहित्य-आयोजनों की सचाई तो हैं ही विवशता भी हैं. आयोजक, कवि (साहित्यिक) और श्रोता की तिकड़ी कई-कई अर्थों में भिन्न-भिन्न धरातलों पर होनेके बावज़ूद परस्पर सम्बन्ध निभाने को विवश हैं.
प्रस्तुत हास्य-रचना के लिये शुभ्रांशुजी को हृदय से बधाई. कथ्य का निर्वहन अत्यंत ही सुगढ़ है तथा कहन में अपेक्षित प्रवाह होने से विषयवस्तु प्रभावोत्पादक बना रहता है. शुभ्रांशुजी के अन्दर का रचनाकार रचना-वर्णन के क्रम में एक वातावरण का निर्माण भी करता चलता है. जोकि आज के हास्य लेखकों में लगातार कम होता जा रहा है. शुभ्रांशुजी कथाकर्म के मूलभूत आग्रहों को तो समझते ही हैं, मानते भी है. यह उनके रचनाकर्म के प्रति आश्वस्ति जगाता है.
एक बात : हास्य रचनाओं का आकार थोड़ा छोटा रखा जाय. लम्बी रचनाएँ चाहे जितनी रोचक तथा मनोरंजक क्यों न हों, अमूमन सामान्य पाठकों के धैर्य की परीक्षा लेती दीखती हैं.
गणेश भइया, आपका मेरी हास्य रचना पर दिल से टिप्पणी करना मुझे कितना हौसला दे रहा है कह नहीं सकता.
मेरी हास्य रचनाएँ कुछ जिन्दा घटनाओं की गवाह होने के कारण थोड़ी लम्बी होती हैं. आपने धैर्य के साथ इसे पढ़ा और घटनाओं को दृश्य सहित बताया जिसके लिये मैं आपका आभारी हूँ.
भइया, मैं आपके लिये आदरणीय सम्बोधनधारी कबसे हो गया ? अनुज पर स्नेह बनाये रखें.
धन्यवाद, वीनस भाई, दिल से विशेष बधाई कह रहा हूँ कि आप ग़ज़लों के अलावा अन्य रचनाएँ वह भी गद्य-रचनाएँ इतने मनोयोग से पढ़ते हैं. आपका आभारी हूँ.
आप इस हास्य रचना के मूल को समझ ही नहीं रहे होंगे बल्कि इस तरह की घटना के चश्मदीद गवाहों में से हैं. हा हा हा...
आदरणीय शुभ्रांशु भाई, यह आलेख मैं पढ़ता गया और शैली ऐसी की एक फ़िल्म की भाति मन मस्तिष्क पर दृश्य उतरता गया, लाला भाई का आगमन, हाल का जुगाड़, फंड जुगाड़ का अनोखा फंडा, वाह वाह, आनंद आ गया, आभासी कवि और मंचीय कवियों में बेसिक डिफ़रेंस, अंतिम समय में मंच संचालक द्वारा आयोजकों को धोखा देना और बनवारी लाल को मंच संचालक का दायित्व संभालना फिर "मुजरिम हाज़िर हो" हा हा हा भीतर तक गुदगुदा रहा है | बहुत बहुत बधाई इस हास्य लेख पर |
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