व्योमकेश !
हम हो न
सकते नीलकंठ ....
गरल कर
धारण स्वयम
तुमने उबारा
संसृति को
अमिय देवों
ने पिया
झुकना पड़ा
आसुरी प्रकृति को
थम गया
तव कंठ में ही
सृष्टि का विध्वंस
हम हो न सकते ....
साक्षी थे
तुम भी तो
विकराल मंथन के
सर्प सम संतति
समूची
तुम ही चन्दन थे
विष तुम्हें डंसता नहीं
देता हमें शत दंश
व्योमकेश!
हम हो न सकते......
दृष्टि तेजोमय तुम्हारी
पाप होते भस्म
भव- उदधि में
बहने वाले
तुच्छ मानव हम
तुम समय के सारथी
हम काल के बंधक
तुम परे
अवगुंठनों से -
अपनी कुंठाएं अनंत
व्योमकेश!
हम हो न सकते......
Comment
वाह!!!!!!! विनीता जी सत्य की स्वीकारोक्ति जिस कागज पर लिखी वह पवित्र हो उठाता है ....नीलकंठ हों सचमुच ही आसान नहीं है ....सुन्दर शब्द चयन के लिए विशेष रूप से बधाई देना चाहूंगी अतुकांत होते हुए भी रचना प्रवाह युक्त है ...बहुत बहुत बधाई
सुन्दर और आत्मीयता से भरी प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद संदीप.
आदरणीया विनीता जी,
सत्य है.. यदि हर कोई नीलकंठ हो सकने का प्रयास मात्र भी करता तो जीवन का ध्येय और लक्ष्य कब पूर्ण होता कहने की बात नहीं है! किन्तु यह सदैव संभव नहीं है कम से कम मनुष्यों के लिए! आपकी पिछली रचना का आस्वादन किया था किन्तु प्रत्युत्तर नहीं दे पाया था! आपका इस नवीन मंच पर हार्दिक स्वागत है आपके एक पुरातन प्रशंसक एवं अनुज के द्वारा! सादर,
आभार आ. गणेश जी 'बागी' जी, सुंदर प्रतिक्रिया व उत्साहवर्धन के लिए.
धन्यवाद राजेश कुमारी जी, आपके विचारों के लिए.
सच में, नीलकंठ होना सबके बस की बात नहीं, बहुत ही प्यारी रचना, बहुत बहुत बधाई आदरणीया विनीता जी , उम्मीद है कि आगे भी आपकी रचनाओं एवं अन्य सदस्यों की रचनाओं पर आपके बहुमूल्य विचारों से हम सभी लाभान्वित होते रहेंगे |
बहुत ही सुन्दर उत्कृष्ट रचना है विनीता जी पर एक पंक्ति में हम हो न
सकते नीलकंठ ....में मुझे लगता है की या तो हम हो न सके आना चाहिए या हम हो नहीं सकते आना चाहिए
धन्यवाद लक्ष्मण प्रसाद जी, सराहना के लिए.
अच्छा प्रयास आपका व्योमकेश को अपने मन की बात रचना के माद्यम से बताने का,
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