======ग़ज़ल========
बह्रे मुतकारिब मुसम्मन् सालिम
वजन- १२२ १२२ १२२ १२२
छुड़ा हाथ अपना वो जाने लगे हैं
मनाने में जिनको जमाने लगे हैं
लिया था ये वादा गिराना न आँसू
वो यादों में आ कर रुलाने लगे हैं
कहीं भूल जाऊँ न मैं भी उसे तो
वो ख्वाबों में आ कर जगाने लगे हैं
रफू कर रहा हूँ मैं चादर वफा की
वो खंजर दगा का चलाने लगे है
कभी जिसकी नज़रें हकारत भरी थीं
मुझे अपना हमदम बताने लगे हैं
कभी जिसके दर हाथ जोड़े खड़े थे
सियासी उन्हें भी सताने लगे हैं
मेरे दिल को गम से भिगोने की खातिर
वो आँखों में शबनम सजाने लगे हैं
जिसे ये पता ही नहीं दर्द है क्या
वो जख्मों पे मरहम लगाने लगे हैं
वो तन्हा अंधेरों से डरने लगे यूँ
शमा को बुझा दिल जलाने लगे हैं
हमें "दीप" गर्दिश से चाहत हुई तो
चरागों को हम भी बुझाने लगे हैं
संदीप पटेल "दीप"
सिहोरा जबलपुर (म. प्र.)
Comment
वाह! बहुत सुन्दर गजल आद. संदीप जी बधाई स्वीकारें.
बहुत खूब संदीप जी कई शेर अच्छे बने हैं
ढेर सारी बधाई व दाद क़ुबूल करें
मतला में अपना कि जगह फिर से रख कर भी देखें,
कभी कभी एक दो शब्द के बदलाव भर से शेर कई गुना अधिक खिल जाता है
कहन के स्तर पर कई शेर और मेहनत मांग रहे हैं
दिल में उतर जाने वाली बेहद खूबसूरत ग़ज़ल आ. संदीप जी, हार्दिक बधाई
संदीप साहब
रफू कर रहा हूँ मैं चादर वफा की
वो खंजर दगा का चलाने लगे है
इस शेर ने दिल चुरा लिया लिया| कमाल किया है आपने| दिली दाद कबूलिये|
जिसे ये पता ही नहीं दर्द है क्या
वो जख्मों पे मरहम लगाने लगे हैं
वो तन्हा अंधेरों से डरने लगे यूँ
शमा को बुझा दिल जलाने लगे हैं
कितनी तारीफ करूँ इस ग़ज़ल की उम्दा ,बेहतरीन ..वाह इन दो शेरों में पूरे नंबर
======ग़ज़ल========
बह्रे मुतकारिब मुसम्मन् सालिम
वजन- १२२ १२२ १२२ १२२
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