सुल्तान जो अपना है वो उनका मुसाहिब है
आये हैं जिधर से वो कहते वहीँ मगरिब है
खामोश ही रहता है अब तक वो नहीं समझा
दुनिया नहीं चुप्पी की दो लफ्जों की तालिब है
हम देर से जागे तो ये कोई खता है क्या?
इक उम्र हमारी क्या बस नींद मे वाजिब है?
सुनते है कि उस खत का मज़मून भी ना बदला
कल उनसे मुखातिब था अब तुमसे मुखातिब है
कुछ और मछलियां भी बाहर तो निकल आयें
सैलाब के आने मे कुछ देर मुनासिब है
कोशिश तो बहुत की पर बदला न हवा का रुख
कल भी उसी जानिब था अब भी उसी जानिब है
शब्दार्थ
मुसाहिब- किसी बड़े आदमी के पास बैठने वाला ,
मगरिब- सूर्य डूबने का स्थान, पश्चिम
तालिब- इच्छुक, ख्वाहिशमंद
मज़मून-विषय
Comment
इस क़ाफ़िये को लेकर बहुत कम ग़ज़ल कही गई है. इस पर आपकी कोशिश क़ाबिले-तारीफ़ है. शेर बहुत अच्छे बन पड़े है.
दाद क़ुबूल कीजिये भाई राणा प्रताप सिंह जी.
सुनते है कि उस खत का मज़मून भी ना बदला
कल उनसे मुखातिब था अब तुमसे मुखातिब है---क्या बात है राणा जी हर शेर अपने में इक कहानी समेटे हुए भाव समझने के लिए बार बार पढ़े बहुत उम्दा ग़ज़ल लिखी है आपने
राणा भाई, कई कई दफा पढ़ी यह ग़ज़ल, हर बार नई लगी, जब कोई ग़ज़ल धीमी आंच पर कई कई दिन तक पकति है तो वो कैसे निखरती है, इसका उदाहरण आपकी ग़ज़ल में है, कहन और शिल्प वाह वाह, इस खुबसूरत अभिव्यक्ति पर बधाई और विजयादशमी के पावन पर्व पर ढ़ेर सारी शुभकामनायें स्वीकार हो |
हम देर से जागे तो ये कोई खता है क्या?
इक उम्र हमारी क्या बस नींद मे वाजिब है?
वाह! ख़ूबसूरत अश'आर, शानदार ग़ज़ल! बधाई भाई साहब!
//कोशिश तो बहुत की पर बदला न हवा का रुख
कल भी उसी जानिब था अब भी उसी जानिब है//
भाई राणा जी ! इस शानदार व अर्थपूर्ण ग़ज़ल के लिए कोटि-कोटि बधाई स्वीकारें !
भाई राणा जी
बहुत दिन बाद आये और आते ही ऐसी ग़ज़ल कही की पढ़ कर दिल डबल स्पीड से पम्पिंग करने लगे :)))
भाई इशारों इशारों में आप बहुत कुछ कह गये
आपको कमल का फूल भेंट करने की इच्छा हो रही है :)))
वाह श्री राणा जी .. उस्तादों वाली तासीर लिए हुए एक एक शेर बाकमाल है बधाई !! ये दो शेर बहुत भा गए हैं -
सुनते है कि उस खत का मज़मून भी ना बदला
कल उनसे मुखातिब था अब तुमसे मुखातिब है
कुछ और मछलियां भी बाहर तो निकल आयें
सैलाब के आने मे कुछ देर मुनासिब है
वाह वाह दिल इन्हें अभी बार बार पढ़ और दुहरा रहा है !!
राणाभाई, क्या खूबसूरत ग़ज़ल साझा की है आपने ! वाह. और बह्र भी क्या रखा ! खूबसूरत ! देर आयद दुरुस्त आयद.. .
मतले से ही ग़ज़ल एकदम से बाँध लेती है. समसामयिक परिस्थितियों पर बहुत कुछ इशारे करती आपकी ग़ज़ल हर तरह से दाद के काबिल है. निम्नलिखित अश’आर तो एकदम से छू जाते हैं -
सुनते है कि उस खत का मज़मून भी ना बदला
कल उनसे मुखातिब था अब तुमसे मुखातिब है
कुछ और मछलियां भी बाहर तो निकल आयें
सैलाब के आने मे कुछ देर मुनासिब है
कोशिश तो बहुत कीं पर बदला न हवा का रुख
कल भी उसी जानिब था अब भी उसी जानिब है
लेकिन जिस शेर ने देर तक बाँधे रखा वो है -
हम देर से जागे तो ये कोई खता है क्या?
इक उम्र हमारी क्या बस नींद मे वाजिब है? .. . वाह-वाह !
एक उम्दा ग़ज़ल के लिये बहुत-बहुत धन्यवाद और हार्दिक बधाई.
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