घरों में सीलिंग फैन्स की घड़घड़ाहट बंद सी होने लगी है और दिन सुबुकपा और रातें संगीन. मौसम ने करवट की इक गर्दिश पूरी की हो जैसे- धूप की शिद्दत खत्म होने लगी है और सुकून और मुलायमियत के झीने से सरपोश के उस तरफ साकित ओ मुतमईन, आयंदा और तबस्सुमफिशाँ कुद्रत के नए रूप का एहसास होने लगा है. घर की हर शै जैसे तपिश भरी दोपहरियों से सज़ायाफ्ता ज़िंदगी की नींद से बेदार होने लगी है और जल रहे लोबान के धुंए की तरह दूदेसुकूत फजाओं में फ़ैल रहा है. ये आमदेसरमा (जाड़े के मौसम के आगमन) के बेहद इब्तेदाई रोज़ हैं और ऐसे में ज़िंदगी के एक हाथ में जाते हुए मौसम के साथ का छूटता दामन तो दूसरे हाथ में आती हुई फ़स्ल के दोशीज़ा हुस्न का आँचल है. ये वो लम्हा है जब दर्द और मुसर्रत से ज़िंदगी यकलम्हा मुखातिब होती है, जब एक आँख में खुशी के आंसूं तैरते तो दूसरी में दुःख के कतरे झिलमिलाते हैं.
भोपाल के अपने घर की हज़ार मुनफरिद सुबहों सी ही कोई सुबह है आज की भी. वही दरो-दीवार के बेज़ुबां साये, वही फर्शोबाम में महदूद ज़िंदगी के सोते-जागते सरमाये, वही काली सड़कें अपना सीना बिछाए, वही शजरोदरख़्त अपना सर उठाए, वही घर के कोने अपना मुंह छुपाए, वही रास्ते में तुम्हारी यादों के नक्श.. शरमाए शरमाए ! सब कुछ वही है मगर बदलते मौसम के रियाज़ में अहसास में उठने वाला आहंग भी कितना बदला बदला नज़र आता है.
© राज़ नवादवी
भोपाल, शुक्रवार २६/१२/२०१२, पूर्वाह्न ११.३७
सुबुकपा (तेज कदमों से जाने वाले); संगीन (भारी/गहरी); गर्दिश (चक्कर); शिद्दत (तेज़ी); सुकून (शान्ति); सरपोश (आवरण); साकित (निस्तब्द्ध); मुतमईन (आश्वस्त); आयंदा (आनेवाली); तबस्सुमफिशाँ (मुस्कुराहट की वर्षा करती); कुद्रत (प्रकृति); शै (चीज़); तपिश (गर्मी); सज़ायाफ्ता (सज़ा पायी); बेदार (जागृत); लोबान (अगरबत्ती); दूदेसुकूत (निस्तब्द्धता का धुंए); आमदेसरमा (जाड़े के मौसम के आगमन); इब्तेदाई (प्रारंभिक); फ़स्ल (मौसम); दोशीज़ा (तरुण, युवा); मुसर्रत (प्रसन्नता, आनंद); मुनफरिद (एक अकेली); बाम (छत); महदूद (सीमित); सरमाये (पूंजी); शजरोदरख़्त (पेड़-पौधे); रियाज़ (आलाप); आहंग (संगीत, आवाज़)
Comment
तहेदिल से शुक्रिया आदरणीया राजेश जी. ये कशिश एक शिकस्ता दिल की ठंढी आह ही तो है, जो माज़ी (अतीत) की बेरंग यादों के तजाजुब (गुरुत्वाकर्षण) के ज़ेरेअसर (प्राभाव में) कहीं जाती भी नहीं, वरना गर्म हो के आसमान का रुख न ले लेती? हा हा हा हा ! दिल कहाँ बसता है कहीं, भोपाल में तो बस... हम रहते हैं. दिल तो सुदूर पूरब के कोहसार में (घाटियों में) कहीं खो सा गया और बाकी रह गया इक शख्स जो राज़ नवादवी है.
ऐसे में ज़िंदगी के एक हाथ में जाते हुए मौसम के साथ का छूटता दामन तो दूसरे हाथ में आती हुई फ़स्ल के दोशीज़ा हुस्न का आँचल है
क्या बात है राज़ साहब आपकी ग़ज़ल हो या संस्मरण आपके लिखने के अंदाज़ में एक कशिश है जो आकर्षित करता है पढने के लिए बहुत बहुत बधाई आपको लगता है भोपाल में आपका दिल बसता है
जी ज़रूर भाई लक्ष्मण जी, अब तो खास एहतियात बरतनी होगी, एक बड़ी फ़िल्मी हस्ती को पहले ही मच्छर ले डूबे हैं, अपनी क्या बिसात है!
सावधान रहे | स्वस्थ रहे |रब्बा खैर करे |
वाह और वाह ...खूबसूरत अहसास जाते और आते हुए पलों का ...शब्द यूं लगे जैसे धीमे धीमे गीत गुनुगुनाते हुए बहती हवा
कमाल का लेखन है आपका ...बधाई राज़ जी
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