For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- ४० (वही घर के कोने अपना मुंह छुपाए, वही रास्ते में तुम्हारी यादों के नक्श.. शरमाए शरमाए)

घरों में सीलिंग फैन्स की घड़घड़ाहट बंद सी होने लगी है और दिन सुबुकपा और रातें संगीन. मौसम ने करवट की इक गर्दिश पूरी की हो जैसे- धूप की शिद्दत खत्म होने लगी है और सुकून और मुलायमियत के झीने से सरपोश के उस तरफ साकित ओ मुतमईन, आयंदा और तबस्सुमफिशाँ कुद्रत के नए रूप का एहसास होने लगा है. घर की हर शै जैसे तपिश भरी दोपहरियों से सज़ायाफ्ता ज़िंदगी की नींद से बेदार होने लगी है और जल रहे लोबान के धुंए की तरह दूदेसुकूत फजाओं में फ़ैल रहा है. ये आमदेसरमा (जाड़े के मौसम के आगमन) के बेहद इब्तेदाई रोज़ हैं और ऐसे में ज़िंदगी के एक हाथ में जाते हुए मौसम के साथ का छूटता दामन तो दूसरे हाथ में आती हुई फ़स्ल के दोशीज़ा हुस्न का आँचल है. ये वो लम्हा है जब दर्द और मुसर्रत से ज़िंदगी यकलम्हा मुखातिब होती है, जब एक आँख में खुशी के आंसूं तैरते तो दूसरी में दुःख के कतरे झिलमिलाते हैं.

 

भोपाल के अपने घर की हज़ार मुनफरिद सुबहों सी ही कोई सुबह है आज की भी. वही दरो-दीवार के बेज़ुबां साये, वही फर्शोबाम में महदूद ज़िंदगी के सोते-जागते सरमाये, वही काली सड़कें अपना सीना बिछाए, वही शजरोदरख़्त अपना सर उठाए, वही घर के कोने अपना मुंह छुपाए, वही रास्ते में तुम्हारी यादों के नक्श.. शरमाए शरमाए ! सब कुछ वही है मगर बदलते मौसम के रियाज़ में अहसास में उठने वाला आहंग भी कितना बदला बदला नज़र आता है.

 

© राज़ नवादवी

भोपाल, शुक्रवार २६/१२/२०१२, पूर्वाह्न ११.३७

 

सुबुकपा (तेज कदमों से जाने वाले); संगीन (भारी/गहरी); गर्दिश (चक्कर); शिद्दत (तेज़ी); सुकून (शान्ति); सरपोश (आवरण); साकित (निस्तब्द्ध); मुतमईन (आश्वस्त); आयंदा (आनेवाली); तबस्सुमफिशाँ (मुस्कुराहट की वर्षा करती); कुद्रत (प्रकृति); शै (चीज़); तपिश (गर्मी); सज़ायाफ्ता (सज़ा पायी); बेदार (जागृत); लोबान (अगरबत्ती); दूदेसुकूत (निस्तब्द्धता का धुंए); आमदेसरमा (जाड़े के मौसम के आगमन); इब्तेदाई (प्रारंभिक); फ़स्ल (मौसम); दोशीज़ा (तरुण, युवा); मुसर्रत (प्रसन्नता, आनंद); मुनफरिद (एक अकेली); बाम (छत); महदूद (सीमित); सरमाये (पूंजी); शजरोदरख़्त (पेड़-पौधे); रियाज़ (आलाप); आहंग (संगीत, आवाज़)

 

Views: 755

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by राज़ नवादवी on October 30, 2012 at 2:17pm

तहेदिल से शुक्रिया आदरणीया राजेश जी. ये कशिश एक शिकस्ता दिल की ठंढी आह ही तो है, जो माज़ी (अतीत) की बेरंग यादों के तजाजुब (गुरुत्वाकर्षण) के ज़ेरेअसर (प्राभाव में) कहीं जाती भी नहीं, वरना गर्म हो के आसमान का रुख न  ले लेती? हा हा हा हा ! दिल कहाँ बसता है कहीं, भोपाल में तो बस... हम रहते हैं. दिल तो सुदूर पूरब के कोहसार में (घाटियों में) कहीं खो सा गया और बाकी रह गया इक शख्स जो राज़ नवादवी है.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 30, 2012 at 9:39am

ऐसे में ज़िंदगी के एक हाथ में जाते हुए मौसम के साथ का छूटता दामन तो दूसरे हाथ में आती हुई फ़स्ल के दोशीज़ा हुस्न का आँचल है

क्या बात है राज़ साहब आपकी ग़ज़ल हो या संस्मरण आपके लिखने के  अंदाज़ में एक कशिश है जो आकर्षित करता है पढने के लिए बहुत बहुत बधाई आपको लगता है भोपाल में आपका दिल बसता है

Comment by राज़ नवादवी on October 26, 2012 at 3:51pm

जी ज़रूर भाई लक्ष्मण जी, अब तो खास एहतियात बरतनी होगी, एक बड़ी फ़िल्मी हस्ती को पहले ही मच्छर ले डूबे हैं, अपनी क्या बिसात है!

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on October 26, 2012 at 3:30pm

सावधान रहे | स्वस्थ रहे |रब्बा खैर करे | 

Comment by राज़ नवादवी on October 26, 2012 at 3:21pm
हाहाहा भाई लक्षण जी,सही फरमाया आपने, ये संक्रमण का दौर न इधर का छोड़ता है और न उधर का. पंखा चलाओ तो ठंढ लगती है और बंद करो तो मच्छरों की ऐश. मौसम का बदलाव भी प्रसव जैसा है, पीड़ा तो झेलनी ही होगी. सादर.
Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on October 26, 2012 at 3:15pm
भाई राज दवा नवी जी आपकी डायरी के पन्ने ने बदलते मौसम से बेखबर से मुझे खबर कर दिया |
एक ओर सीलिंग फेन गडगडाहट का डर तो दूसरी ओर मच्छर काटने का डर, बीमार हो जाने का खतरा |
सावधान करने के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद भाई जी 
Comment by राज़ नवादवी on October 26, 2012 at 3:10pm
आदरणीया सीमा जी, मगर आपके प्रतिक्रियात्मक शब्द "शब्द यूं लगे जैसे धीमे धीमे गीत गुनुगुनाते हुए बहती हवा" भी अपने आप में किसी गीत के बोल जैसे ही लगे. बहुत खूब. सादर!
Comment by राज़ नवादवी on October 26, 2012 at 2:59pm
आदरणीय बागी जी, आपकी सरहाना पाकर हृदय गदगद हुआ. सादर आभार!
Comment by राज़ नवादवी on October 26, 2012 at 2:59pm
आपका दिल से आभार आदरणीय सीमा जी.
Comment by seema agrawal on October 26, 2012 at 2:28pm

वाह और वाह ...खूबसूरत अहसास जाते और आते हुए पलों का  ...शब्द यूं लगे जैसे  धीमे धीमे  गीत गुनुगुनाते हुए बहती हवा
कमाल का लेखन है आपका ...बधाई राज़ जी 

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Jaihind Raipuri joined Admin's group
Thumbnail

आंचलिक साहित्य

यहाँ पर आंचलिक साहित्य की रचनाओं को लिखा जा सकता है |See More
10 minutes ago
Jaihind Raipuri replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"हर सिम्त वो है फैला हुआ याद आ गया ज़ाहिद को मयकदे में ख़ुदा याद आ गया इस जगमगाती शह्र की हर शाम है…"
38 minutes ago
Vikas replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"विकास जोशी 'वाहिद' तन्हाइयों में रंग-ए-हिना याद आ गया आना था याद क्या मुझे क्या याद आ…"
51 minutes ago
Tasdiq Ahmed Khan replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"ग़ज़ल जो दे गया है मुझको दग़ा याद आ गयाशब होते ही वो जान ए अदा याद आ गया कैसे क़रार आए दिल ए…"
2 hours ago
Richa Yadav replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"221 2121 1221 212 बर्बाद ज़िंदगी का मज़ा हमसे पूछिए दुश्मन से दोस्ती का मज़ा हमसे पूछिए १ पाते…"
2 hours ago
Manjeet kaur replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"आदरणीय महेंद्र जी, ग़ज़ल की बधाई स्वीकार कीजिए"
4 hours ago
Manjeet kaur replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"खुशबू सी उसकी लाई हवा याद आ गया, बन के वो शख़्स बाद-ए-सबा याद आ गया। वो शोख़ सी निगाहें औ'…"
4 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"हमको नगर में गाँव खुला याद आ गयामानो स्वयं का भूला पता याद आ गया।१।*तम से घिरे थे लोग दिवस ढल गया…"
6 hours ago
Chetan Prakash replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"221    2121    1221    212    किस को बताऊँ दोस्त  मैं…"
6 hours ago
Mahendra Kumar replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"सुनते हैं उसको मेरा पता याद आ गया क्या फिर से कोई काम नया याद आ गया जो कुछ भी मेरे साथ हुआ याद ही…"
13 hours ago
Admin posted a discussion

"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)

आदरणीय साथियो,सादर नमन।."ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" में आप सभी का हार्दिक स्वागत है।प्रस्तुत…See More
13 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"सूरज के बिम्ब को लेकर क्या ही सुलझी हुई गजल प्रस्तुत हुई है, आदरणीय मिथिलेश भाईजी. वाह वाह वाह…"
yesterday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service