For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ४१ (बहरे रमल मुसम्मन महजूफ़: "बात क्यूँ करते हो मुझसे इश्रतोआराम की")

बहरे रमल मुसम्मन महजूफ़

(वज़न- फायलातुन फायलातुन फायलातुन फाएलुन)

---------------------------------------------------------

मुलाहिजा फरमाएं:

 

बात क्यूँ करते हो मुझसे इश्रतोआराम की

हुस्नवालों की दलीलें हैं मिरे किस काम की

 

कब हुई तस्लीम मेरी इक ज़रा सी इल्तेजा

दास्तानें कब हुईं मंसूख तेरे नाम की

 

जाग जाओ सोने वालो अपने मीठे ख्वाब से   

घंटियाँ बजने लगी हैं शह्र में आलाम की

 

पीछे पीछे नामाबर के आ गए वो मेरे पास

नौईयत ऐसी न देखी थी कभी पैगाम की

 

ज़िन्दगी का ज़ाविया ही देखके उलटा हुआ

हायरे वो कज़दहानी गुंचए गुलफाम की

 

तख्लिए में वो निगूं होके मुक़ाबिल हो गए 

खुल गई सारी हकीकत इश्कपर इल्जाम की

 

छीन के मुझसे ही मेरा लेगए दिल आश्ना

बात जो करते थे कलतक इज्ज़तोईनाम की

 

बात क्या लिक्खें रवायातेखुसूसोआम की

हर कहीं चर्चे में जबकि हो तब्आ ईमाम की

 

मुख्तलिफ हैं पार्टियाँ बेजान है कारेअमल

इब्तिदा होगी भला कैसे नए इकदाम की

 

लिख गए कल रात वो मेरे बदन पे दास्ताँ

निकहतेबादेसबा- ए- संदली अन्दाम की

 

मर न जाएं हम खुशी से जो तू मेरे पास हो

क्या करेंगे ज़िन्दगी जीके तुम्हारे नाम की

 

गर हमें इक घूँट भी मम्नूअ है बादाकशी

फ़र्ज़ है पूछे रज़ा कोई सुबू-ओ-जाम की

 

इन्तेहा-ए-दास्ताँ पे रंज तो होगा तुम्हें

तू कहानी है हमारी कोशिशेनाकाम की

 

दामने ज़ेबाई-ए-माशूक का परचम खिला

चादरें हम पे बिछीं अल्लाह के इकराम की

 

लेनेदेने में शिकस्ता हो गया अपना ख़ुलूस

तूने भीतो राज़ से बोली लगाई दाम की

 

© राज़ नवादवी, संध्याकाल ०६.४३

भोपाल बुधवार १७/१०/२०११२

 

इश्रतोआराम- ऐश्वर्य और आराम; तस्लीम- स्वीकार; इल्तिजा- प्रार्थना; मंसूख- निरस्त; आलाम- अलम का जम, दुःख समूह; नामाबर- सन्देशवाहक; नौइयत- एक प्रकार, खासियत; जाविया- कोण; कज़दहानी गुंचए गुलफाम- फूल के रंग वाली कली के हलके तिरछे खुले ओष्ठ; तख्लिए में- अकेले में; निगूं होके- अधोमुख होके; मुक़ाबिल- सामने; रवायातेखुसूसोआम- खाम और आम लोगों का चलन; तब्आ ईमाम की- नेता स्वाभाव, नीयत; मुख्तलिफ- अलग अलग; कारेअमल- कार्य प्रणाली; इब्तिदा- शुरूआत; इकदाम- अग्रसरता, आगे बढ़ाना, कार्य निष्पादन; निकहतेबादेसबा-ए-संदलीअन्दाम- चन्दन से बदन वाली सवेरे की पुरवाई की महक; मम्नूअ – निषिद्ध; बादाक़शी- मद्यपान; रज़ा- मर्जी; सुबू-ओ-जाम- शराब की सुराही और प्याले; इन्तेहा-ए-दास्ताँ- कहानी की पराकाष्ठा; रंज- आघात, पीड़ा, शोक; कोशिशेनाकाम- असफल प्रयास; दामने ज़ेबाई-ए-माशूक का परचम खिला- एक पताके की तरह प्रियतम के सौन्दर्य का आँचल खिल गया; अल्लाह के इकराम की- इश्वर की कृपाओं की; शिकस्ता हो गया- टूट गया; ख़ुलूस- निष्कपटता, निश्छलता, सच्चाई.  

Views: 761

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by राज़ नवादवी on October 22, 2012 at 9:50am

शुक्रिया जनाब पटेल साहेब, दिल से शुक्रिया. मैं दरअसल लिखता हूँ मश्क के लिए क्यूंकि शाइरी के मद्रसे में मैं अभी पहली जमात का तालिबेइल्म हूँ. कलाम बड़ा होगा तो गलतियां भी ज़्यादा होंगी और सीखने का तजुर्बा भी बड़ा. हा हा हा हा ! 

सादर! 

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on October 22, 2012 at 9:14am

आदरणीय राज साहब सादर प्रणाम
बेहद शानदार कलाम
कुछ ज्यादा बड़ा है किन्तु कमाल का है
कुछ उर्दू का शब्दकोष भी बढ़ गया
दिली दाद क़ुबूल फरमाइए

Comment by राज़ नवादवी on October 21, 2012 at 7:01pm

आदरणीया राजेशजी, आपका तहदिल से शुक्रिया. सादर! 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 21, 2012 at 6:42pm

राज़ नवद्वी कितनी तारीफ करूँ इस ग़ज़ल की वो भी कम होगी बाकी मेरे मन की बातें वीनस जी और सौरभ जी ने कह ही दी दिली दाद कबूल करें इस खूबसूरत ग़ज़ल के लिए 

दामने ज़ेबाई-ए-माशूक का परचम खिला

चादरें हम पे बिछीं अल्लाह के इकराम की

 इस शेर के लिए थ्री चियर्स 

 

Comment by राज़ नवादवी on October 21, 2012 at 3:01pm

मुहतरम जनाब सौरभ भाई साहेब, आपसे बारहा गुफ्तगू होती रहती है और ख्यालात मुत्बादिल. मगर हकीकत तो यही है कि निजामेअरूज़ की फ़िक्र पहले पहल आपने ही मुझमें पैदा की वरना मैं कायदे से गाफिल लिखता जा रहा था. अभी तो मैं पहली सीढ़ी पे भी नहीं हूँ, मगर पूरी कोशिश करूँगा कि आप सबों की निस्बतों पे एक दिन सरापा खरा उतरूं. आप सबों की दुआएं बेकार नहीं जाएँगी. 

'हो' को 'है' करने की तजवीज़ का शुक्रिया, आप सही फरमाते हैं. आपने गज़ल को सराहा, ये मेरे लिए बहुत ही मखसूस लम्हा है. ये बातें मुस्तकबिल के किसी मोड़ पे पीछे मुड़कर देखने की वजहें होंगी कभी. आपका दिल से शुक्रिया! सादर! 

Comment by राज़ नवादवी on October 21, 2012 at 2:43pm

जनाब आदरणीय केसरी जी, सरनिगूँ तो मैं हूँ आपके, जनाब सौरभ पाण्डेय जी, जनाब योगराज जी, जनाब गणेश जी, जनाब राना जी, एवं पूरे मंच के सामने कि मुझे गज़ल के अरूज़-ओ-क़ायदा-ओ-कानून का एहसास कराया. ये सच है के मुझे 'अरूज़' का लफ़्ज़ी मानी भी नहीं पता था और हालांकि पहले कभी सुना तो था मगर पिछले तरही मुशायरे में पहली बार शिरकत करने के दरम्यान इस लफ्ज़ से साबिका पड़ा और फिर मैंने लुगत में इसके लफ़्ज़ी मानी को ढूँढा. मेरी पूरी कोशिश फिलहाल इस बात से मुताल्लिक है के मैं इस इल्मोफन की मुकम्मलख्वानी कर लूं ताकि गज़लगोई में मेरे हाथों कोई गुस्ताखी न हो. आपके एवं जनाब तिलकराज जी के शरहोमकालात के इलावा जनाब डॉक्टर एम् आज़म की किताब 'आसान अरूज़' का भी मुताला कर रह हूँ. आखिर यही तो फर्क है शाइरी और नस्रनिगारी में.

आपने मेरे कलाम पे दाद दी यह मेरे लिए निहायत हौसलाआमेज़ और फख्रअंगेज़ बात है. आपका तहेदिल से शुक्रिया. 

सादर! 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 21, 2012 at 9:12am

जिन खोजा तिन पाइयाँ गहरे पानी पैठ. ..

लाललाला / लाललाला / लाललाला / लालला  करते हुए आपने जो कुछ साझा किया है भाईजी, उसकी ज़मीन चौरस और आसमान विस्तृत है. शेर दर शेर मुग्ध होता गया.

ज़िन्दगी का ज़ाविया ही देखके उलटा हुआ
हायरे वो कज़दहानी गुंचए गुलफाम की

अहा हाहा ! क्या कशिश.. क्या मुलामियत ! 

मर न जाएं हम खुशी से जो तू मेरे पास हो .. हुज़ूर, हो को है न किया जाय ?!

गर हमें इक घूँट भी मम्नूअ है बादाकशी
फ़र्ज़ है पूछे रज़ा कोई सुबू-ओ-जाम की

ग़ज़ब ग़ज़ब ! दिल जीत ले गये ’राज़’ भाई.. वाह-वाह !

आपको अरुज़ोबह्र के दायरे में देख कर, सच कहूँ, इस मंच के ऊपर और फ़क़्र हो रहा है. राज़भाई, बने रहिये और साझा करते रहिये. सही कहिये ये तो शुरुआत भर है.. .

शुभेच्छाएँ.

Comment by वीनस केसरी on October 21, 2012 at 1:10am

ज़िन्दगी का ज़ाविया ही देखके उलटा हुआ
हायरे वो कज़दहानी गुंचए गुलफाम की
हाय ! हाय ! मार डाला हुजूर
जान ले ली आपने
बेहतरीन कहन,,, लाजवाब आदायगी,,, और आपके द्वारा बहर का नाम लिखा देख कर जो सुकून मिला है उसे तो शब्दों में बयान ही नहीं कर सकता
आज आपके सामने नतमस्तक हो गया
सादर

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Mahendra Kumar replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"सुनते हैं उसको मेरा पता याद आ गया क्या फिर से कोई काम नया याद आ गया जो कुछ भी मेरे साथ हुआ याद ही…"
1 hour ago
Admin posted a discussion

"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)

आदरणीय साथियो,सादर नमन।."ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" में आप सभी का हार्दिक स्वागत है।प्रस्तुत…See More
2 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"सूरज के बिम्ब को लेकर क्या ही सुलझी हुई गजल प्रस्तुत हुई है, आदरणीय मिथिलेश भाईजी. वाह वाह वाह…"
12 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

कुर्सी जिसे भी सौंप दो बदलेगा कुछ नहीं-लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

जोगी सी अब न शेष हैं जोगी की फितरतेंउसमें रमी हैं आज भी कामी की फितरते।१।*कुर्सी जिसे भी सौंप दो…See More
yesterday
Vikas is now a member of Open Books Online
Tuesday
Sushil Sarna posted blog posts
Monday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा दशम्. . . . . गुरु
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय । विलम्ब के लिए क्षमा "
Monday
सतविन्द्र कुमार राणा commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"जय हो, बेहतरीन ग़ज़ल कहने के लिए सादर बधाई आदरणीय मिथिलेश जी। "
Monday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"ओबीओ के मंच से सम्बद्ध सभी सदस्यों को दीपोत्सव की हार्दिक बधाइयाँ  छंदोत्सव के अंक 172 में…"
Sunday
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय सौरभ जी सादर प्रणाम, जी ! समय के साथ त्यौहारों के मनाने का तरीका बदलता गया है. प्रस्तुत सरसी…"
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"वाह वाह ..  प्रत्येक बंद सोद्देश्य .. आदरणीय लक्ष्मण भाईजी, आपकी रचना के बंद सामाजिकता के…"
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय अशोक भाई साहब, आपकी दूसरी प्रस्तुति पहली से अधिक जमीनी, अधिक व्यावहारिक है. पर्वो-त्यौहारों…"
Sunday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service