ऐतिहासिक इमारतों में कितना आकर्षण समाया है. इक पूरी ज़िंदगी और ज़माने का कोई थ्री डी अल्बम हों ये जैसे. ख्यालों की लम्बी दौड़ लगानेवालों के लिए गोया ये फंतासी, रूमानियत, त्रासदी, और न जाने किन किन रंगों के तसव्वुरात की कब्रगाह या कोई मज़ार हैं ये इमारतें.
ज़िंदगी जीते हुए जितनी हसीन नहीं लगती उससे कहीं अधिक माजी के धुंधले आईने में नज़र आती है. जैसे गर्द से आलूदा किसी शीशे में कोई हसीन सा चेहरा पीछे से झांकता नज़र आ जाए और हम खयालों में मह्व (खोए), हौले से अपनी उंगुलियाँ आगे बढ़ा दें शीशे की गर्द को मिटाने के लिए. ये ख़याल भी किसी शाइरी की तरह दिलकश है जैसे किसी अलसाई खुशबू के चंद मखमूर (नशे में) से एहसास किसी कदीम (प्राचीन) सी किताब के वरक में समाए हों और उन्हें छूते ही उन कलाइयों की याद ताज़ा हो आई हो जिनकी उंगुलियों ने उन्हें पहली दफा अपने नर्म से लम्स (स्पर्श) से नवाज़ा था और जिनकी चूड़ियों की खनक अब भी उन तनहा रह गए वरकों (पन्नों) में लिखी नज्मों में बज रही हो.
इन इमारतों में जाओ तो ऐसा लगता है जैसे कोई अतीत दबे पाँव आपके पीछे पीछे ही हमसवार है, मानो आज भी किसी फूल से नाज़ुक कफेपा (पान के तलवे) से जब ज़मीन बोसादम (चुम्बन लिया था) हुई थी उस लम्हे में बज उठी पाजेब की मूसीकी (संगीत) आपके कानों में सदाएं (आवाजें) बन कर बसी हों.
© राज़ नवादवी
भोपाल, शनिवार प्रातःकाल १०.४६
१३/१०/२०१२
Comment
आदरणीय भाई लक्षमण साहेब, आपका ह्रदय से आभार. जो सपने में दिख जाएं तो गनीमत है, सच में उन्हें हम दीखते नहीं और हमको यकीं होता नहीं! सादर.
आदरणीया सीमा जी, आपका तहेदिल से शुक्रिया! ज़िंदगी को ढूँढा तो परछईयाँ मिलीं, आफताब बनके मुझको दिखा रही थी. सादर!
आदरणीया राजेश जी, ह्रदय से आपका आभार. खेद है कि चंद अरसे के बाद ही ओबीओ पे ऑनलाइन हो पाया. हम ज़िंदगी की दास्ताँ लिखते हैं, और ज़िंदगी हमें खूब लिखती है! सादर!
आदरणीय सौरभ भाई साहेब, आपकी दाद साहित्य में डोक्टोरेट पाने जैसी है. हहाहाहा! हृदय से आभार. सादर!
आदरणीय भाई संदीप जी, आपका तहेदिल से शुक्रिया. खेद है व्यस्तताओं के कारण ओबीओ पे कुछ रोज़ से संपर्क टूटा सा रहा.
आदरणीय राज जी सादर प्रणाम
क्या सुन्दर शब्द चयन है मन प्रवाह में बह गया
सोचा की दीवारों की भाषा को भी समझने की इक गुंजाईश है उनमे लिखी कहानियां गुनने की जरुरत है
दिल खुश हो गया
बहुत बहुत बधाई आपको इस सरस रचना के लिए
अह्होह ! क्या ही दिलकश और खूबसूरत अहसास ! स्थापत्य कला के संदर्भ में नर्म छुअन की पहली-पहली सी अनुभूति को जीते हुए देखना विभोर कर गया.. . प्रवाह में कविता और वाचन में संगीत ! राज़ साहब.. . बहुत खूब !
निर्जीव दीवारों में भी ,संगीत की लहर, खुशबू ,प्यार,खोज .लेना एक सच्चे शायर की नज़रों का ही कमाल है बहुत खूबसूरत शब्दों में आपने अपनी बात कही है किसी गीत के गुनगुनाने का सा आभास हो रहा है
//इन इमारतों में जाओ तो ऐसा लगता है जैसे कोई अतीत दबे पाँव आपके पीछे पीछे ही हमसवार है, मानो आज भी किसी फूल से नाज़ुक कफेपा (पान के तलवे) से जब ज़मीन बोसादम (चुम्बन लिया था) हुई थी उस लम्हे में बज उठी पाजेब की मूसीकी (संगीत) आपके कानों में सदाएं (आवाजें) बन कर बसी हों.//...वाह
बहुत सुन्दर चित्रण किया है किसी हद तक सही भी है एतिहासिक इमारतों की दीवारें बहुत बोलती हैं बस सुनने वाले कान चाहिए अपने जज्बात साझा करती हैं बस महसूस करने वाला दिल चाहिए
"इन इमारतों में जाओ तो लगता है जैसे अतीत दबे पाँव आपके पीछे ही हमसवार है,मानो आज भी किसी फूल
से नाज़ुक कफेपा से जब ज़मीन बोसादम हुई थी उस लम्हे में बज उठी पाजेब की मूसीकी आपके कानों में सदाएं
बन कर बसी हों"- ऐसा सजीव सा चित्र उकेरा लगता है जैसे सपने में दिखेगा | बधाई राज दवा नवी भाई |
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