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राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ४० (आह हस्रत तिरी कि ज़ीस्त जावेदाँ न हुई)

आह हस्रत तिरी कि ज़ीस्त जावेदाँ न हुई

यूँकि ये मरके भी आज़ादीका उन्वाँ न हुई

 

तू जो इक रात मेरे पास मेहमाँ न हुई

ज़िंदगी आग थी पे शोलाबदामाँ न हुई  

 

ज़िंदगी तेरे उजालों से दरख्शां न हुई   

ये ज़मीं चाँद-सितारोंकी कहकशाँ न हुई

 

बात ये है कि मिरी चाह कामराँ न हुई

एक आंधी थी सरेराह जो तूफाँ न हुई

 

दौरेमौजूदा में आज़ादियाँ आईं लेकिन

लैला-मजनूँकी तरह और दास्ताँ न हुई

 

याद तुझको न करूँ यूँ तो इरादा था मेरा   

तेरे बस भूलनेकी बातही निसियाँ न हुई  

 

काश जल जाता मुकम्मिल मैं तेरी चाहतमें

आह उल्फतका दर्द, पूरी भी सोजाँ न हुई

 

तुम मिले मुझको यूँ महदूद मेरे ख़्वाबों में

ज़ुल्फेतर्रार तेरी काकुलेपेचां न हुई

 

उनसे बिछड़े तो ता उम्र जुदा होके रहे

उनकी ज़ेबाई कभी लौटके मेहमाँ न हुई

 

इश्क कैसा कि निकाले न गए हों घर से    

आशिकी क्या कि कभी चाकगिरेबाँ न हुई

 

बादेतर्केवफ़ा दुश्वारियां तो जाती रहीं

ज़ीस्त आसाँ हुई पे इतनी भी आसाँ न हुई

 

आज महबूब लबेबाम फिर नहीं आया

आज बादेसबा फिर राहेगुलसिताँ न हुई

 

इश्क ने जोर लगाया था पूरी ताक़त से

हैफ उल्फत ही मेरी वस्लकी ख्वाहाँ न हुई

 

ताकतेदीद क्या जिसमें तेरी परछाई नहीं

ज़ुल्फ़ भी क्या जो तिरे मू सी परेशाँ न हुई

 

राज़ करते रहे हम इश्कमें अश्कोंका शुमार

लज्ज़तेहुस्न दिलेजौक का सामाँ न हुई

 

© राज़ नवादवी, भोपाल

शुक्रवार, ०५/१०/२०१२, रात्रिकाल ११.३५

 

 

जावेदाँ – शाश्वत; उन्वां- शीर्षक, टाइटल, युक्ति; शोलाबदामाँ- अग्निज्वाला के आँचल वाली; दरख्शां- प्रकाशवान; कामराँ- सफल; अज्म- शपथ, इरादा; निसियाँ- विस्मृत; मुकम्मिल- पूरा, पूर्ण; सोजाँ- जलता हुआ, दग्ध होता हुआ; महदूद– सीमित; ज़ुल्फेतर्रार- उलझी जुल्फें;काकुलेपेचां- पेंच से भरी अलकें; ज़ेबाई –सौन्दर्य, हुस्न; चाकगिरेबाँ- गिरेबाँ का फटना; बादेतर्केवफ़ा- प्रेम के टूटने के बाद; दुश्वारियां- मुश्किलें; ज़ीस्त- ज़िंदगी; लबेबाम- छत के किनारे; बादेसबा- ठंढी हवा; राहेगुलसिताँ- वाटिका की वीथि में; हैफ- अफ़सोस; वस्ल- प्रियतम से मिलन; ख्वाहाँ- इच्छुक; ताकतेदीद- दृष्टि का सामर्थ्य; मू- कुंतल, सिर के बाल; अश्कोंका शुमार- आंसुओं की गिनती; लज्ज़तेहुस्न- हुस्न का आनंद, मज़ा;दिलेजौक- रसानुभाव, रसिकता को चाहने वाला हृदय; सामाँ- उपकरण 

 

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Comment by राज़ नवादवी on October 10, 2012 at 8:21pm

शुक्रिया भाई नादिर साहेब, आपने ग़ज़ल पढी और पसंद की. ह्रदय से आभार! 

Comment by नादिर ख़ान on October 10, 2012 at 7:07pm

वाह राज़ भाई बड़ी उम्दा गज़ल है ।

भाव ऐसे लगे कि गालिब को पढ़ रहा हूँ।

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