आह हस्रत तिरी कि ज़ीस्त जावेदाँ न हुई
यूँकि ये मरके भी आज़ादीका उन्वाँ न हुई
तू जो इक रात मेरे पास मेहमाँ न हुई
ज़िंदगी आग थी पे शोलाबदामाँ न हुई
ज़िंदगी तेरे उजालों से दरख्शां न हुई
ये ज़मीं चाँद-सितारोंकी कहकशाँ न हुई
बात ये है कि मिरी चाह कामराँ न हुई
एक आंधी थी सरेराह जो तूफाँ न हुई
दौरेमौजूदा में आज़ादियाँ आईं लेकिन
लैला-मजनूँकी तरह और दास्ताँ न हुई
याद तुझको न करूँ यूँ तो इरादा था मेरा
तेरे बस भूलनेकी बातही निसियाँ न हुई
काश जल जाता मुकम्मिल मैं तेरी चाहतमें
आह उल्फतका दर्द, पूरी भी सोजाँ न हुई
तुम मिले मुझको यूँ महदूद मेरे ख़्वाबों में
ज़ुल्फेतर्रार तेरी काकुलेपेचां न हुई
उनसे बिछड़े तो ता उम्र जुदा होके रहे
उनकी ज़ेबाई कभी लौटके मेहमाँ न हुई
इश्क कैसा कि निकाले न गए हों घर से
आशिकी क्या कि कभी चाकगिरेबाँ न हुई
बादेतर्केवफ़ा दुश्वारियां तो जाती रहीं
ज़ीस्त आसाँ हुई पे इतनी भी आसाँ न हुई
आज महबूब लबेबाम फिर नहीं आया
आज बादेसबा फिर राहेगुलसिताँ न हुई
इश्क ने जोर लगाया था पूरी ताक़त से
हैफ उल्फत ही मेरी वस्लकी ख्वाहाँ न हुई
ताकतेदीद क्या जिसमें तेरी परछाई नहीं
ज़ुल्फ़ भी क्या जो तिरे मू सी परेशाँ न हुई
राज़ करते रहे हम इश्कमें अश्कोंका शुमार
लज्ज़तेहुस्न दिलेजौक का सामाँ न हुई
© राज़ नवादवी, भोपाल
शुक्रवार, ०५/१०/२०१२, रात्रिकाल ११.३५
जावेदाँ – शाश्वत; उन्वां- शीर्षक, टाइटल, युक्ति; शोलाबदामाँ- अग्निज्वाला के आँचल वाली; दरख्शां- प्रकाशवान; कामराँ- सफल; अज्म- शपथ, इरादा; निसियाँ- विस्मृत; मुकम्मिल- पूरा, पूर्ण; सोजाँ- जलता हुआ, दग्ध होता हुआ; महदूद– सीमित; ज़ुल्फेतर्रार- उलझी जुल्फें;काकुलेपेचां- पेंच से भरी अलकें; ज़ेबाई –सौन्दर्य, हुस्न; चाकगिरेबाँ- गिरेबाँ का फटना; बादेतर्केवफ़ा- प्रेम के टूटने के बाद; दुश्वारियां- मुश्किलें; ज़ीस्त- ज़िंदगी; लबेबाम- छत के किनारे; बादेसबा- ठंढी हवा; राहेगुलसिताँ- वाटिका की वीथि में; हैफ- अफ़सोस; वस्ल- प्रियतम से मिलन; ख्वाहाँ- इच्छुक; ताकतेदीद- दृष्टि का सामर्थ्य; मू- कुंतल, सिर के बाल; अश्कोंका शुमार- आंसुओं की गिनती; लज्ज़तेहुस्न- हुस्न का आनंद, मज़ा;दिलेजौक- रसानुभाव, रसिकता को चाहने वाला हृदय; सामाँ- उपकरण
Comment
शुक्रिया भाई नादिर साहेब, आपने ग़ज़ल पढी और पसंद की. ह्रदय से आभार!
वाह राज़ भाई बड़ी उम्दा गज़ल है ।
भाव ऐसे लगे कि गालिब को पढ़ रहा हूँ।
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