कैद कब तक रहोगे अपनी ही तन्हाइयों में
ढूंढें मिलते नहीं ज़िंदा बशर परछाइयों में
हक़का रिश्ता ज़मींसे है, ये खंडहर कहते हैं
सब्ज़े होते नहीं अफ्लाक की बालाइयों में
खुशबूएं जम गईं गुलनार के पैकर में ढलके
कल की बादे सबा क्यूँ खोजते पुरवाइयों में
हम हैं जंगल के फूल तख़लिएमें खिलते हैं
ज़र्द पड़ जाते हैं गुलदस्ते की रानाइयों में
फूल वा होते हैं, निकहत बिखर ही जाती है
फर्क कुछ भी नहीं है प्यार और रुसवाइयों में
कैसी ज़ेबाई से निकला वो कल रकीबके घर
कोई तिनका सा चुभ गया मिरी बीनाइयों में
राज़ साहिल पे बैठने से कुछ नहीं होगा
मोती मिलते नहीं उतरे बिना गहराईयों में
© राज़ नवादवी, अहमदाबाद,
शनिवार २९/०९/२०१२ अपराहन्न ०३.२१
बशर- व्यक्ति; हक़का रिश्ता- सच का रिश्ता; सब्ज़े- हरियाली, हरे भरे बाग़; अफ्लाक- फलक (आसमान) का बहुवचन; बालाइयों में- ऊंचाइयों में; गुलनार- अनार का फूल; पैकर- शरीर; बादे सबा- सुबह की हवा; तख़लिएमें- एकांत में; रानाइयों में- सौन्दर्य; वा होते हैं- खिलते है; निकहत- खुशबू; ज़ेबाई से- सज-धज के; बीनाइयों में- दृष्टि में; साहिल- किनारा
Comment
भाई निमिष जी, आपका तहेदिल से शुक्रिया!
भाई सुजान साहेब, आपके ग़ज़ल पढ़ने और पसंद करने का तहेदिल से शुक्रिया. बड़ी हौसलाअफजाई हुई!
आदरणीय वीनस जी, आपकी दाद बहुत ख़ास है हमारे लिए, शुक्रिया भी कैसे करूँ, मगर फिर भी शक्रिया!
bahut khub
बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल है।
बहुत खूब राज साहिब
ढेरो दाद
आदरणीया सीमा जी, आपकी तारीफ़ और दाद हमारा हौसला बढाती है. अशआर पढ़ने और पसंद करने का तहेदिल से शुक्रिया.
आदरणीया राजेश जी, आपको हमारा कलाम पसंद आया, इसके हम शुक्रगुज़ार हैं. आपकी हौसल अफजाई का बहुत शुक्रिया!
हम हैं जंगल के फूल तख़लिएमें खिलते हैं
ज़र्द पड़ जाते हैं गुलदस्ते की रानाइयों में
कैसी ज़ेबाई से निकला वो कल रकीबके घर
कोई तिनका सा चुभ गया मिरी बीनाइयों में....वाह क्या बात हा राज़ जी
राज़ साहिल पे बैठने से कुछ नहीं होगा
मोती मिलते नहीं उतरे बिना गहराईयों में...बहुत खूबसूरत बात .......
बहुत बढ़िया ,उम्दा ग़ज़ल सभी शेर शानदार हैं
कैसी ज़ेबाई से निकला वो कल रकीबके घर
कोई तिनका सा चुभ गया मिरी बीनाइयों में
राज़ साहिल पे बैठने से कुछ नहीं होगा
मोती मिलते नहीं उतरे बिना गहराईयों में
ये दोनों बहुत ही ज्यादा पसंद आये
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