लघुकथा :- तरकीब
ठाकुर साहब की चाकरी करते करते भोलुआ के बाबूजी पिछले महीने चल बसे, अब खेत बघार का सारा काम भोलुआ ही देखता था, बदले मे ठाकुर साहब ने जमीन का एक टुकड़ा उसे दे दिया था जिससे किसी तरह परिवार चलता था | ठाकुर साहब भोलुआ को बहुत मानते थे, सदैव भोलू बेटा ही कह कर बुलाते थे | ठाकुर साहब द्वारा इतना सम्मान भोलुआ के प्रति प्रदर्शित करना उनके बेटे विजय बाबू को जरा भी नहीं सुहाता था | दोपहर को ठाकुर साहब परिवार के साथ बैठ कर भोजन कर रहे थे साथ ही खेत खलिहान की भी बात किये जा रहे थे | मौका देख विजय बाबू आखिर पूछ ही बैठे ,
"पिता जी, हम लोग जमींदार खानदान से है, हमारे पुरखे हमेशा सामंती विचारधारा के रहे है, भोलुआ निचली जाति का लड़का है और आप उसे बेटा कह कर बुलाते है, यह मुझे जरा भी अच्छा नहीं लगता"
"बेटा अब समय वो नहीं रहा कि किसी से जबरन काम करा लिया जाय, भोलुआ जितना काम करता है उसके लिए यदि हम कोई आदमी रखते तो हमें हर महीने १५-२० हज़ार देना पड़ता, किन्तु भोलुआ को हम क्या देते है समझो कि कुछ भी नहीं, वो ठहरा मूर्ख लड़का केवल बेटा कह भर देने से वो सारा काम मन लगाकर करता है"
"समझ गया बाबूजी, सामंती तो हम लोग आज भी है केवल तरकीब बदल गयी है"
Comment
बहुत खूब! बहुत सच बात उकेरी आपने। ताकतवर द्वारा कमजोर को मूर्ख बनाकर उसका शोषण आज भी जारी है।
आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद लडिवाला जी, आपने लघुकथा की आत्मा तक पहुँच जिसप्रकार अपने विचारों को साझा किया है, वह लेखक के लिए अवश्य ही उत्साहित करता है, बहुत बहुत आभार आपका |
आदरणीया अन्वेषा अन्जुश्री, आपकी प्रोत्साहन निश्चित ही उत्साहवर्धन करती है, बहुत बहुत आभार |
सामंती तो हम लोग आज भी है केवल तरकीब बदल गयी है"
सशक्त कहानी 'तरकीब' सच ही है काम लेने की तरकीब बदली है, सोच अभी भी वाही सामंती है । दूसरी बात - अभी भी भोले भाले गरीब इंसानों के प्रति वाही रवैयाँ है । इससे पता लगता है, क्यों और कैसे सत्ताधीश, सामर्थवान लोग गरीब दलित लोगो को अपने स्वार्थ के लिए, वोटो की राजनीती के लिए शिक्षित नहीं करना चाहते । कहानी अपने उद्दयेश में सफल रही है और जितना लिखा है उससे अधिक अनकही बाते उजागर होती है । हार्दिक बधाई स्वीकारे आदरणीय श्री गणेश जी बागी जी
मन दुखित होता है , मानसिकता बदलना संभव नहीं, कई सदियाँ लग जाएँगी !उत्तम
आदरणीया राजेश कुमारी जी, आप सदैव ही मुझे प्रोत्साहित करती रहती हैं, उत्साहवर्धन और सराहना हेतु बहुत बहुत आभार आपका |
आभार नादिर साहब |
आदरणीय प्रदीप कुशवाहा जी, आप सदैव मुझे प्रोत्साहित करते हैं, लघु कथा को सराहने हेतु आभार |
आदरणीय गणेश बागी जी, लघु कथा विधा में आपका कोई जवाब नहीं.
बहुत सुन्दर तरह से सामंती प्रथा का नया रूप, प्रस्तुत किया है आपने. किसी के ह्रदय में शब्दों से जगह बनाना और उसकी आत्मा को छलना..
कोई आदमी रखते तो हमें हर महीने १५-२० हज़ार देना पड़ता, किन्तु भोलुआ को हम क्या देते है समझो कि कुछ भी नहीं, वो ठहरा मूर्ख लड़का केवल बेटा कह भर देने से वो सारा काम मन लगाकर करता है"
हार्दिक बधाई इस लघु कथा पर. सादर.
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