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आपका हार्दिक स्वागत है आदरणीय गुरुदेव .......लेखन के बारे में आपके कहे का शत प्रतिशत समर्थन करता हूँ .......आपके द्वारा किया गया संशोधन वास्तव में गेयता को गति प्रदान कर रहा है .......आप मेरे गुरु हैं ......शिष्य अपने गुरु से ही तो सीखता है ......
वस्तुतः लेखन और उसमें संशोधन एक अनवरत प्रक्रिया है जब तक कि विधा और शिल्प पर कोई रचना शब्द, कथ्य और तथ्य से पग न जाय.
अब देखिये न प्रस्तुत छंद के आखिरी पद में धरती-वन के स्थान पर वसुधा-वन समझ में आ रहा है जो छंद की गेयता को संतुष्ट भी कर रहा है. अतः, इसे संशोधित कर लिया जाय .. . :-)))
भारत के हम शेर, रखें मन-प्राण सुरक्षित कानन को
मेट रहे बल-पौरुष से दिखते हर संकट कारण को
भाग चला हर शत्रु लिए तन-मोह ढके निज आनन को
विश्व कहे, हम वीर खरे दिल से रखते वसुधा-वन को
यह सवैया-रचना हर तरह से आपकी रचना है, भाई अजीतेन्दु. हम पाठकगण उसे निहार कर अपने हिसाब से सजाते भर हैं. रचनाओं पर ऐसे मंतव्य पाठकीय हुआ करते हैं.
शुभेच्छाएँ
आदरणीय गुरुदेव .........अत्यंत सुन्दर ......अपने शिष्य के प्रति ये आपका स्नेह है .....आपके और मेरे, दोनों के सम्मिलित प्रयास से ये सवैया लिखा गया .....यह विचार ही मन को बहुत आनंदित कर रहा है .....आपका हार्दिक आभार .........
भाई अजीतेन्दुजी, आपकी कोशिश रंग लायी है. इस प्रयास पर आपको हृदय से धन्यवाद और अतिशय बधाइयाँ.
आपका प्रयास, आपकी लगन और आपका सतत अध्ययन आश्वस्त तो करते ही हैं अन्य रचनाकर्मियों के लिये एक उन्नत उदाहरण भी प्रस्तुत करते हैं कि मात्र लेखन और उनका प्रस्तुतिकरण ही नहीं, संयत साहित्य-साधना और उचित अध्ययन भी उतनी ही आवश्यक है. बिना विधा की यथोचित जानकारी के लेखनकर्म अपना तथा पाठक दोनों के समय की बरबादी का कारण हैं.
मैंने आपके सुगढ़ प्रयास पर अपने मंतव्य दिये हैं. अवश्य बताइयेगा, अपना मिलजुल हुआ प्रयास कैसा बन पड़ा है -
भारत के हम शेर, रखें मन-प्राण सुरक्षित कानन को
मेट रहे बल-पौरुष से दिखते हर संकट कारण को
भाग चला हर शत्रु लिए तन-मोह ढके निज आनन को
विश्व कहे, हम वीर खरे दिल से रखते धरती-वन को
शुभेच्छाएँ... .
आदरणीय गुरुदेव .......आपका हार्दिक आभार ..........आपने पहली पंक्ति के हिंदी के प्रारूप को ही बाकी कि पंक्तियों में भी बनाये रखने को कहा है ......कृपया इन पंक्तियों पर विचार करें .......
भारत के हम शेर किये नख के बल रक्षित कानन को।
चीर दिया हर बार सदा बढ़ते हुए संकटकारण को।
भाग चले रिपु पीठ दिखा ढकते निजप्राण व आनन को।
हाल सुना अब हैं फिरते सब कालिख माथ लगा वन को॥
आदरणीय रक्ताले सर .......आपका बहुत-बहुत धन्यवाद ......आपने जो शब्द सुझाये हैं बिलकुल उनका उपयोग भी हो सकता है .........
हार्दिक आभार आदरणीय लक्ष्मण सर ........
आदरणीय कुशवाहा सर ........आपका बहुत-बहुत धन्यवाद ........
आदरणीय गौरव जी
सुन्दर मदिरा सवैया के लिए बधाई स्वीकारें. दूसरी पंक्ति में कभि नाहि कि जगह कबहूँ न का उपयोग किया होता तो और भी सुंदरता बढ़ जाती ऐसा मुझे लगता है.
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