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भारत के हम शेर किये नख के बल रक्षित कानन को।
छोड़त हैं कभि नाहिं उसे चढ़ आवहिं आँख दिखावन को।
भागत हैं रिपु पीठ दिखा पहिले निजप्राण बचावन को।
घूमत हैं फिर माँगन खातिर कालिख माथ लगावन को॥

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Comment by Saurabh Pandey on November 25, 2012 at 3:01pm

मदिरा सवैया - सात भगण पर एक गुरु.

प्रथम पंक्ति का विन्यास एकदम से अति उच्च आशाएँ जगा देता है. कि अपेक्षा अगली ही पंक्ति से वायव्य हुई दीखती हैं. विश्वास है, आपने मेरे कहे का सहज भावार्थ लिया होगा. काश, आप हिन्दी के उसी प्रारूप को छंद के आगामी तीनों पदों में भी बनाये रखते जिस प्रारूप से आपने प्रथम पंक्ति को साधा है. 

शुभेच्छाएँ

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on November 25, 2012 at 2:55pm
ऐसे ही सवैया चाहत है लक्ष्मण पढ़े जो मन भावन को
मन भावन को औ करने सलाम नौजवां चूमे सीमा को   
Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on November 25, 2012 at 2:42pm

प्रिय कुमार जी, सस्नेह 

सुन्दर रचना, 

बधाई. 

कृपया ध्यान दे...

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