हमने सुना है कि शिक्षक कि नजर में सभी बच्चे एक सामान होते है लेकिन इस कहानी को पढने के बाद शायद ये बात गलत ही साबित होती नजर आती है l
यह कहानी एक छोटे से गॉव कि है जहाँ एक विधालय में सभी जाति के बच्चे पढ़ते थे और हर एक कक्षा में लगभग ६०-८० बच्चे हुआ करते थे l उसमे रामू और उसके कुछ दोस्त जो निम्न जाति के थे, पढ़ते थे l इसी स्कुल में एक अध्यापक बाबु जो उच्च जाति से सम्बन्ध रखता था सदा निम्न जाति के बच्चो को हीन दृष्टि से देखता था और व्यव्हार से कंजूस व् लालची था l वह स्कूल में कम पढाई कराता और जब परीक्षा का समय आता था तो जल्दी से जल्दी अपने कोर्स को पूरा कराने कि कोशिश करता ताकि कोई उसके काम पर ऊँगली ना उठा सके l इसी वजह से जो बच्चे होशियार या समझदार होते वह तो कुछ समझने में सक्षम होते और जो थोड़े से काम समझदार होते वे पीछे ही रह जाते और अक्सर परीक्षा में फेल हो जाते इससे बाबु को उन्हें ट्यूशन पढने के लिए उकसाना सरल हो जाता l वह चाहता था कि ज्यादा से ज्यादा बच्चे स्कुल के बाद उसके पास ट्यूशन पढ़े l जो उच्च जाति के और सक्षम परिवार से सम्बन्ध रखते थे वो बच्चे तो ट्यूशन पढ़ लेते थे लेकिन जो निम्न और गरीब परिवार से थे तो उनके लिए पढना बहुत ही कठिन हो जाता था l अत: ये बात बाबु को अच्छी नहीं लगती थी इसलिए वह अक्सर रामू और उसके दोस्तों को सजा देने से बिलकुल भी नहीं चुकता था और कभी कभी तो छोटी सी गलती के लिए जैसे काम पूरा ना करने के लिए या फिर स्कुल में देरी से आने के लिए डंडे से पिटाई (पहले जैसा हम सभी जानते है कि डंडे से पिटाई भी कि जाती थी और डंडा भी ऐसा कि लगते ही लगता था कि हाथ ही टूट जायेगा फिर इन बच्चो को इसे सहन करना ही पड़ता था) या फिर दो दो घंटे मुर्गा बनाना उसकी नियति बन गई थी फिर स्कुल खत्म होने के बाद सभी निम्न जाति के बच्चो को रोक लेना उनसे कपडे और अपने नहाने के लिए नल से पानी भरवाना, घर पर अपनी पत्नी के कामो में हाथ बटाने के लिए भेज देना उसका रोजाना का काम था l
उसकी इन ही वजह से बच्चो का अधिकतर समय उसके कामो में गुजर जाता और बच्चो कि पढाई को समय ही नहीं मिल पाता क्योंकि वह स्कुल का हेड मास्टर था तो किसी कि हिम्मत भी नहीं होती कि कोई अपने परिवारवालों को उसकी शिकायत करें क्योंकि सभी बच्चो को फेल होने का डर था डर क्या अक्सर होता भी यही था l अगर निम्न जाति के १० बच्चे एक कक्षा में थे तो केवल एक दो को ही वह पास करता नहीं तो सभी बच्चे फेल उनके पास एक ही तरीका था या तो वह ट्यूशन पढ़े और उसके कामो का चुपचाप करते रहे नहीं तो एक ही कक्षा में दो दो तीन तीन साल लगाये l क्या इसी को अध्यापक कहते है ? क्या ट्यूशन इतना जरुरी है कि स्कूल में पढाई करने कि जरुरत ही नहीं रह गई है? क्या यही अध्यापक एक अच्छे की पहचान हैं ? क्या ऐसे ही अध्यापक हमारे देश के विकास में सहायक है क्या हम ऐसे ही अध्यापको के हाथो में अपने देश कि डोर दे सकते है ? स्कुलो में भी ये छुआछुत आखिर कब तक अगर ऐसा ही चलता रहा तो क्या होगा हमारे देश का भविष्य इसका अनुमान हम खुद लगा सकते है l
Comment
फूलसिंह जी
सादर आपने जाति भेदभाव कि मानसिकता को बहुत अच्छे से उजागर किया है. बड़े सामूहिक प्रयास ही इस पर अंकुश लाने में सक्षम रहे हैं सरकारी नीतियों का पालन कौन कराये यह बड़ी समस्या है?
प्रदीप जी नमस्कार...
आपका बहुत बहुत धन्यवाद........
फूल सिंह
जवाहर जी नमस्कार....
आपका बहुत बहुत धन्यवाद........
फूल सिंह
प्रिय फूल सिंह जी, नमस्कार!
आपकी कहानी पढकर मुझे भी अपने प्राथमिक स्कूल की याद आ गयी ! वहाँ जातिगत भावना तो नहीं थी, पर बच्चों से अपना काम कराना और बेवजह दंड देना, खुद विलंब से आना, खुद अनियमित रहना एक अध्यापक बाबु की आदत थी! संभव है आज भी कुछ स्कूल और अध्यापक ऐसे हों! आपको बधाई!
आपकी पीड़ा से सहमत
आदरणीय , सादर
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