(पूर्णतया काल्पनिक, वास्तविकता से समानता केवल संयोग)
बहुत समय पहले की बात है। जंगल में शेर, लोमड़ी, गधे और कुत्ते ने मिलकर एक कंपनी खोली, जिसका नाम सर्वसम्मति से ‘राष्ट्रीय वन निगम’ रखा गया । गधा दिन भर बोझ ढोता। शाम को अपनी गलतियों के लिए शेर की डाँट और सूखी घास खाकर जमीन पर सो जाता। कुत्ता दरवाजे के बाहर दिन भर भौंक भौंक कर कंपनी की रखवाली करता और शाम को बाहर फेंकी हड्डियाँ खाकर कागजों के ढेर पर सो जाता। लोमड़ी दिन भर हिसाब किताब देखती। हिसाब में थोड़ा बहुत इधर उधर करके वो शाम तक अपने भविष्य के लिए कुछ न कुछ जमा कर लेती। शाम को लोमड़ी के काम के बदले उसे बचा हुआ मांस मिलता जिसे खाकर वो कंपनी से मिले मकान में जाकर सो जाती।
शेर दिन भर अपनी आराम कुर्सी पर बैठे बैठे दो चार जगह फोन मिलाता। तंदूरी मुर्गा खाता। हड्डियाँ दरवाजे पर फेंक देता और पेट भरने के बाद बचा हुआ मुर्गा लोमड़ी के पास भिजवा देता। शाम को गधे के पास जाकर पहले उसे डाँटता फिर और ज्यादा ध्यान से बोझ ढोने के लिए बोलता। यह सब करने के बाद वो अपने महल में मखमल के गद्दे पर जाकर सो जाता। चारों जानवर इस व्यवस्था से बड़े प्रसन्न थे और सेवानिवृत्ति के पश्चात उन्होंने अपने बच्चों को भी उसी काम में लगा दिया।
तब से यही सिस्टम चला आ रहा है। आज तक लोमड़ी गधे या कुत्ते के वंशजों ने शेर के कमरे में झाँककर यह जानने की कोशिश नहीं की कि वो आखिर दिन भर करता क्या है?
Comment
seema agrawal जी, जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई कि आप भी एनटीपीसी परिवार से हैं। लघुकथा पसंद करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।
Laxman Prasad Ladiwala जी, बहुत बहुत धन्यवाद। स्नेह बनाए रखें।
बहुत खूब धर्मेन्द्र जी ...आपकी इस कहानी को पढ़ कर एक कहानी याद आरही है जो NTPC में बहुत प्रचलित है (मैं भी इसी परिवार से हूँ )........एक तोते वाले के पास तीन तोते थे एक १०० का दूसरा १००० का उर तीसरा १०००० का ...लोगों ने पूछा तीनो में क्या अंतर है .
तोते वाले ने बोला १०० रुपये वाला तोता इस संसार में होने वाली हर एक बात का जानकार है
....................१००० रुपये वाला ,जो हो चुका है वो जानता है,जो हो रहा है वो भी जानता है और जो होने वाला है वो भी बता सकता है
...................१०००० रुपये वाला कुछ नहीं जानता ........पर ये इतना मंहगा इसलिए है क्योंकि बाकी के दोनों तोते इसे boss कहते हैं
तो बस boss के कमरे में तो झांकना वैसे भी मना है न
SANDEEP KUMAR PATEL जी, बहुत बहुत शुक्रिया जनाब।
सच कहा सर जी सिस्टम तो वही चला आ रहा है
न बोंस की सोच बदली न कर्मचारियों की बस चल रहा है जी
सुन्दर रचना पर बधाई सर जी
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