मुझको "तुम्हारी" ज़रूरत है!
दूर रह कर भी तुम सोच में मेरी इतनी पास रही,
छलक-छलक आई याद तुम्हारी हर पल हर घड़ी।
पर अब अनुभवों के अस्पष्ट सत्यों की पहचान
विश्लेषण करने को बाधित करती अविरत मुझको,
"पास" हो कर भी तुम व्यथा से मेरी अनजान हो कैसे
या, ख़्यालों के खतरनाक ज्वालामुखी पथ पर
कब किस चक्कर, किस चौराहे, किस मोड़ पर
पथ-भ्रष्ट-सा, दिशाहीन हो कर बिखर गया मैं
और तुम भी कहाँ, क्यूँ और कैसे झर गई
मौलसिरी के फूलों की कोमल पंखुरियों-सी ऐसे !
सच है, मेरे ख़्यालों के ब्रह्मांड को दीप्तिमान करती
मन-मंदिर में मधुर छविमान स्नेहमयी देवी हो तुम,
तुम आराध्य-मूर्ती हो, पूजता हूँ तुमको अविरल,
पर ... पर मैं तुमको पहचानता नहीं हूँ,
क्योंकि
तुम दर्शनीय देवी सही, पर तुम "वह" नहीं हो ।
तुम्हारी अन-पहचानी दिव्य आकृति तो ख़्यालों में
मेरे ख़्यालों के शिल्पकार ने रातों जाग-जाग
काट-छांट कर, छील-छील कर, जोड़-जोड़ कर
अपनी कलात्मक कल्पना में गढ़ी है ।
कभी इस परिवर्तन, कभी उस संशोधन में रत
इस शिल्पकार से मुझे बड़ी खीझ होती है अब,
कि मुझको उसकी काल्पनिक देवी की नहीं,
मुझको तो आज केवल तुम्हारी ज़रूरत है --
तुम, जो सरल स्वभाव में पली, हँस-हँस देती थी,
बात-बात में बच्चों-सी शैतान, चुलबुली,
तुम ... जो मुझको लड़खड़ाते-गिरते देख
इस संसार से सम्हाल लेती थी,
लड़फड़ाता था मैं तो हाथों मे मेरे हाथों को थामे,
ओंठों से अकस्मात उनकी लकीरें बदल देती थी,
मेरी कुचली हुई आस्था की संबल थी तुम ...
मेरी उदास ज़िन्दगी के सारे बंद दरवाज़े खोल,
प्यार की नई सुबह बन कर
मेरे भीतर के हर कमरे, हर कोने में इस तरह
मुस्कराती रोशनी-सी बिछ जाती थी तुम !
तुम ... मेरे जीवन की चिर-साध, कहाँ हो तुम ?
नीरवता से व्यथित, व्याकुल, उदास हूँ मैं,
मुझको देवी की नहीं, तुम्हारी ज़रूरत है ।
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Comment
उत्कृष्ट विचारों को कितने प्रभावशाली शब्दों में अभिव्यक्त किया है आपने ! पढ़कर मंत्रमुग्ध हूँ ! मेरी हार्दिक बधाई एवं सादर नमन आपको।
आदरणीय सौरभ जी:
न जाने कैसे मुझसे इस कविता पर आपकी प्रतिक्रिया के लिए आभार प्रकट करना रह गया,
इसके लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूँ। सराहना के लिए आपका शत-शत धन्यवाद। कृप्या ऐसे ही
मार्ग-दर्शन कराते रहें।
सादर,
विजय निकोर
आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद जी:
मेरी कविता की सराहना के लिए आपका आभार। प्रतिक्रिया आज ही देखी,
विलंब के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ।
विजय निकोर
आदरणीया सुमन मिश्रा जी, अन्वेषा अन्जुश्री जी, राजेश कुमारी जी,
आदरणीय लक्षमण प्रसाद जी और सौरभ पांडय जी,
सराहनापूर्ण अभिव्यक्ति एवं उत्साहवर्धन के लिए आप सभी का हार्दिक धन्यवाद l
सादर और सस्नेह,
विजय निकोर
दिल से लिखी गयी अंतर्मन को छू जाने वाली रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारे
एक परिपक्व मस्तिष्क से निकले गहन भाव शब्द जो दिल को छू कर निकलते हैं रचना में एक निश्छल प्यार के दर्शन का एहसास होता है बहुत बहुत बधाई आपको आपकी पहली रचना पढ़ी आगे भी इन्तजार रहेगा
बीते पल , अद्भुत पल , सपनो से सुंदर पल, और उनका सुंदर वर्णन ! प्रेम की सुंदर छवि का दर्शन। नमन
यादों में दर्द का शाब्दिक संगम...नमन आपके भावों को....सादर
आदरणीय विजय जी, आपकी संभवतः पहली रचना देख रहा हूँ. (इससे पहले वाली आपकी रचना को इस रचना को देखने के बाद देखा हूँ). आपका भावों को साझा करना अच्छा लगा है. विशेष यह भी कि आप हर इस-उस क्षणिका के आवेश में शाब्दिक हो जाने के मोह में नहीं पड़ते. आपकी दो रचनाओं से तो यही लगा है.
प्रस्तुत रचना का कवि अपनी समस्त उधेड़बुन के परिप्रेक्ष्य में आदर्श और व्यावहारिकता के मध्य संतुलन चाहता या साधता प्रतीत होता है. उसे पटल पर अन्योन्याश्रय की देह का होना उतना ही आवश्यक लगता है जितना कि उस इकाई की वैचारिकता उसे लुभाती है. इस विचार का अच्छा प्रस्तुतिकरण हुआ है. वैसे रचना में शाब्दिकता या प्रयुक्त बिम्बों में वही-वहीपन की उपस्थिति बार-बार झटके देती है, लेकिन मैं यह मान कर चल रहा हूँ कि कवि द्वारा साझा हुए विचार मंच पा रहे हैं, और यह ही अधिक अभिभूतकारी है.
आपकी रचनाओं का इंतज़ार रहेगा. .. सादर
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