समर्पण
(यह कविता मैं अपनी जीवन साथी, नीरा जी, को सादर समर्पित कर रहा हूँ)
तुम
मेरे शब्दों को पी लेती हो,
पल भर को सकुचाती हो,
फिर वही की वही हो जाती हो ...
जैसे कोई लहर मछली से खेलती
पल भर को उसे तट पर छोड़ जाती है
और लौटती लहर उसे
आ कर वापस ले जाती है,
हो कर भी जैसे
कुछ हुआ ही न हो !
जो कुछ भी कहता हूँ,
तुम सहज, सादर, निर्विवाद मान जाती हो,
और इससे मेरी भी ज़िम्मेवारी बढ़ जाती है,
कि कहीं भूल से मैं कुछ अनुचित कह न बैठूँ,
अनजाने में तुम्हारा कोमल मन दुखा न बैठूँ,
इस पर भी पूछने को मन है कि तुम ...
प्रिय, तुम इतनी अच्छी क्यूँ हो ?
मेरे घर की राह पर धूप थी कड़क,
पथरीली बजरी थी पगडंडी पर,
इस पर भी उस पर चल कर तुम चली आई,
कोई शिकायत नहीं की, कोई दुखड़ा नहीं रोया,
बस, वही मनोहर सुखद मुस्कान
जो ओंठों पर थी तुम्हारे, वह सदैव, बनी रही।
सुनो, जीवन गति इतनी सरल नहीं है
भविष्य में क्या है हमारे,
इसकी मुझको दिव्यदृष्टि नहीं है।
मैं क्षमाप्रार्थी हूँ प्रिय, कि मेरा अनमना मन
तुम्हारा इतना सरल स्नेह सह नहीं सकता,
दर्द हैं भीतर, जो मैं सहज कह नहीं सकता।
रिश्तों में पहले कई बार
डूबते सूरज-सा हार चुका हूँ मैं,
चाह कर भी न स्वयं को
अन्धकार से पहले समेट सका हूँ मैं।
इसीलिए है यह अनुनयी विनती तुमसे,
प्रिय, तुम स्नेह दो मुझको बस इतना,
कि जितना मैं सह तो सकूँ,
पास आओ इतनी कि
तुम्हारे समर्पण में आत्म-विभोर
घुटने टेक
मैं तुम्हें पूज तो सकूँ,
और ओस-बूंद-सा कुछ कभी
ठहर जाए जो तुम्हारे कोरों पर यदि
मैं रहूँ पास तुम्हारे ... पास तुम्हारे !
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विजय निकोर
Comment
आदरणीया आरती जी:
क्षमाप्रार्थी हूँ .. न जाने कैसे प्रतिक्रिया के लिए आभार प्रकट करना रह गया।
कृपया मेरा हार्दिक आभार स्वीकार करें।
सादर और सस्नेह,
विजय निकोर
सच्चे प्रेम की अभियक्ति करना तो कोई आपसे सीखे आदरणीय सर..बहुत खूब...बधाई..
आदरणीय प्रदीप कुमार जी:
कविता की सराहना के लिए आपका अंतरिम आभार।
सादर,
विजय निकोर
आदरणीय सुरेन्द्र कुमार जी:
जय श्री राधे!
"समर्पण" कविता पर इतनी उदात्त प्रतिक्रिया के लिए और आशीर्वाद के
लिए मैं और नीरा जी आपके आभारी हैं। धन्यवाद।
विजय निकोर
आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद जी:
कविता की सराहना के लिए और आशीर्वाद के लिए आपका अतिशय धन्यवाद।
विजय निकोर
आदरणीया प्राची जी, सीमा जी, महिमा जी,
आदरणीय सुरेन्द्र कुमार जी, प्रदीप कुमार जी, लक्ष्मण प्रसाद जी,
आपकी स्नेहिल और उदात्त सराहना से अभिभूत हूँ। आप सभी का अंतरिम आभार।
ऐसी सराहना निरंतर बेहतर लिखने की प्रेरणा देती है।
और हाँ, शुभकामनाओं के लिए नीरा जी की ओर से भी हार्दिक धन्यवाद।
सस्नेह,
विजय निकोर
प्रिय, तुम स्नेह दो मुझको बस इतना,
कि जितना मैं सह तो सकूँ,
पास आओ इतनी कि
तुम्हारे समर्पण में आत्म-विभोर
घुटने टेक
मैं तुम्हें पूज तो सकूँ,
आदरणीय विजय जी आप के इस छलकते हुए स्नेह को नमन आप और आप की जीवन संगिनी को ढेर सारी शुभ कामनाएं ये स्नेह लोगों के लिए प्रेरणा बनें लोग नारियों का यूं ही सम्मान करें एक दूजे के प्रति यों ही समर्पण हो तो आनंद और आयें
निर्मल, निःस्वार्थ, निश्छल प्रेम का यह निर्झर यूं ही निर्बाध बहता रहे, ह्रदय से यही शुभकामनाएं हैं आप दोनों के लिए. सादर.
मैं तुम्हें पूज तो सकूँ,
और ओस-बूंद-सा कुछ कभी
ठहर जाए जो तुम्हारे कोरों पर यदि
मैं रहूँ पास तुम्हारे ... पास तुम्हारे !
यह साथ कभी न छूटे दुआ करता हूँ
प्यारी रचना पर बधाई अता करता हूँ
सादर आदरणीय सर जी
समर्पण भाव लिए,सच्चे मन से यथार्थ में लिखी गई अभ्व्यक्ति, हार्दिक बधाई और शुभ कामनाए
ये पंक्तिया दिल को छू गई -
मेरे घर की राह पर धूप थी कड़क, पथरीली बजरी थी पगडंडी पर,-----------
बस, वही मनोहर सुखद मुस्कान जो ओंठों पर थी तुम्हारे, वह सदैव, बनी रही।-- प्रभु ऐसा ही करे
प्रिय, तुम स्नेह दो मुझको बस इतना,कि जितना मैं सह तो सकूँ,पास आओ इतनी
कि तुम्हारे समर्पण में आत्म-विभोर घुटने टेक मैं तुम्हें पूज तो सक और ओस-बूंद-सा कुछ
कभी ठहर जाए जो तुम्हारे कोरों पर यदि मैं रहूँ पास तुम्हारे ... पास तुम्हारे !
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