छू दो तुम.. . / फिर
सुनो अनश्वर !
थिर निश्चल
निरुपाय शिथिल सी
बिना कर्मचारी की मिल सी
गति-आवृति से
अभिसिंचित कर
कोलाहल भर
हलचल हल्की.. .
अँकुरा दो
प्रति विन्दु देह का
लिये तरंगें
अधर पटल पर.. . !
विन्दु-विन्दु जड़, विन्दु-विन्दु हिम
रिसूँ अबाधित
आशा अप्रतिम.. .
झल्लाये-से चौराहे पर
किन्तु चाहना की गति
मद्धिम !
विह्वल ताप लिए
तुम ही / अब
रेशा-रेशा
खींचो तन पर.. . !!
***************
--सौरभ
***************
Comment
झल्लाये-से चौराहे पर
किन्तु चाहना की गति
मद्धिम !
वाह !
जब काव्य दिगाग से नहीं बल्कि ह्रदय से पुष्पित और पल्लवित हो रहा हो तो दिलों को छू लेने की अद्भुत शक्ति का वाहक हो जाता है
ऐसे अद्भुत शब्द संयोजन की चाहना हर नवांकुर को होती है
मैं ऐसा लिख सकूं तो मेरे लिए,सपने के सच होने जैसी कुछ बात हो जायेगी .....
हार्दिक आभार साझा करने के लिए
us param eesh ko jaise aap mahsus kar rahe hai, aur mahsus kara bhi rahe hai...
प्रति विन्दु देह का
लिये तरंगें....behad sunder ...
बहुत भाया आपका नवगीत आदरणीय, हर पंक्ति में एक लय है एक तरंग है, जाने कितने ही नवगीत मैंने पढ़े लेकिन 90 प्रतिशत मामलों में जबरदस्ती थोपी हुई लय से मन भन्ना गया, ठूंस कर भरे बिंबों ने बहुत उदास किया । कोफ्त तो तब हुई जब तकनीकी श्रेष्ठता दिखाने के लिए मात्राएं तक संतुलित कर दी गई यहां तक ही बात होती तो ठीक था ऐसी-ऐसी तुकबंदी की गई कि हमने तौबा कर ली, आपके नवगीत ने बड़ा सुकून दिया । इसके बिंब विधान, तकनीकी पक्ष यथा मात्रा/तुक इत्यादि पर आपका आलेख मिल जाए तो जो ज्ञान अबतक प्राप्त किया है उसको एक नई दृष्टि मिल जाएगी, एक बार पुन: आपका आभार कि बड़े दिनों के बाद उस परस के दर्शन हुए जिसके लिए मन बेचैन था, सादर
बहुत सुंदर नवगीत सौरभ जी, बधाई स्वीकार करें।
बहुत सुन्दर नवगीत आदरणीय सौरभ जी
"फिर सुनो अनश्वर"...यह पंक्ति इस रचना निहित भावों को एक दूसरे ही डाईमेंशन में ले जा रही है. इस सुन्दर गीत के लिए ह्रदय से बधाई.
सादर.
आदरणीया राजेश कुमारीजी, आपने इस प्रस्तुति को मान दिया तो इस तौर पर भी अच्छा लगा कि संभवतः यह अभिनव विधा इस मंच की मुख्य धारा में भी आ जाय.
पुनः सादर धन्यवाद.
सीमाजी, आपने प्रस्तुति के आयामों को बेहतर समझा. हार्दिक धन्यवाद.
मेरे कुछ नवगीत इस मंच पर पहले से मौज़ूद हैं, तो कुछ इस मंच के आयोजनों के पृष्ठों में भी हैं, जैसे --
देखो अपना खेल अज़ूबा,
देखो अपना खेल
द्वारे बंदनवार प्रगति का पिछवाड़े धुरखेल..भइया देखो अपना खेल.. .
तो कुछ इधर-उधर भी बिखरे हुए हैं. चलिये, अब इनपर भी गंभीरता से काम होगा.
इस रचना को पसंद करने केलिये पुनः हार्दिक धन्यवाद.
बहुत सुन्दर, अद्दभुत बिम्बों से इंगित, शब्द शब्द से अभिसिंचित अनुराग अनुरोध के मोती नवगीत की माला में गूंथना कोई आप से सीखे दिल खुश हो गया पढ़ के वाह बहुत बहुत बधाई आदरणीय सौरभ जी
प्रणय गीत का यूं नवगीत के प्रारूप में ढल कर आना बिलकुल नवीन है बिलकुल अपारंपरिक बिम्ब गीत को रोचक तो बना ही रहे हैं कल्पना के आसंगो को नए पर भी मिल रहे हैं
थिर निश्चल
निरुपाय शिथिल सी
बिना कर्मचारी की मिल सी........सन्नाटे के लिए एक नया बिंब
अँकुरा दो
प्रति विन्दु देह का
लिये तरंगें
अधर पटल पर.. . !.......वाह बहुत सुन्दर शब्द और शब्द प्रक्षेपण
झल्लाये-से चौराहे पर
किन्तु चाहना की गति
मद्धिम !............ गीतोँ में परम्परावादी दृष्टिकोण ऐसे प्रतीक कभी नहीं प्रयोग में लायेंगे यही नवगीत की आत्मा हैं
नवगीत का एक अच्छा उदाहरण प्रस्तुत किया सौरभ जी वह भी इतना त्वरित ...मन प्रसन्न हो गया
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