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कृषक  

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कृषि प्रधान भारत अपना फसलों की बहार है 

भूख कुपोषण जन है मरते कैसा पालन हार है 

खेत से खलिहान तक फैली  जिसकी सरकार है

उसका तो बस नाम मात्र  ईश्वर पालन हार है  

काट रहा निश दिन अपने स्वेदाम्बू लिए माथ है 

हाथ न आये लाभ उसे कछु भूख मात्र साथ है 

काढ़े कर्ज उत्पादन करते सेठ भरे तिजोरी है 

बच्चे उसके भूखे  मरते शासन की कमजोरी है 

रिकार्ड उत्पादन करते भरते अन्न का  भण्डार है 

अनीती की नीत बनाती अंधी ये सरकार है 

घूमती कृषकाय तन ले पल पल उखड़े श्वास है 

बिलख रहे बच्चे भूखे तन पे न उनके गात है 

सड़  रहा अनाज बाहर दाने दाने की आस है 

करेगा कोई जरूर जतन मन में ये विश्वास है 

भूख गरीबी बेईमानी से न कोई रार है 

झेल रही जनता कैसे कैसी ये सरकार है 

प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा

१९-१२-२०१२  

 

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Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on December 21, 2012 at 11:07am

एक ओर कृषक का त्याग और उसकी पीड़ा का, तो दूसरी ओर सरकारी उदासीनता का  सुन्दर चित्रण दर्शाती रचना । हार्दिक बधाई श्री प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा जी 

Comment by SUMAN MISHRA on December 21, 2012 at 12:53am

ek vidambnaa sunder shabdon me ,,,,sunder kavita sir


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 20, 2012 at 11:24pm

कृषकों की दशा, उपजाये गये अन्न की दुर्दशा और खेतों में बहते पसीने का महत्व साजा करती पंक्तियों के लिए आपको सादर बधाई, आदरणीय प्रदीपजी.  आपकी संवेदनशील आँखों से इस सड़ी-गली व्यवस्था का विद्रुप स्वरूप बच जाय, यह हो ही नहीं सकता था. आपकी रचना में इस व्यवस्थाके विरुद्ध आक्रोश की धार पिघले लोहो की तरह दीखता है.

बधाई आपकी संवेदनशीलता को. .. .

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