तार-तार विश्वास, मगर जीवन चलता है.. .
भूमि भले हो रेह, पुलक टूसा खिलता है ;
जुगनू-तितली-फूल, किरन हँसती सिन्दुरिया,
ले आया नव वर्ष, चहकती फिर से चिड़िया.. .
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-सौरभ
Comment
क्षमा, सीमाजी, कि आपकी टिप्पणी अभी देख पाया.
जिन संदर्भों में इस थ्रेड में चर्चा ने जोर पकड़ा उसके पीछे न जाकर मैं इतना ही कहूँगा कि शब्द और उनके उच्चारण तुकांतता हेतु अन्योन्याश्रय हिस्सा होते हुए भी अभी तक पूरी तरह से नियमबद्ध नहीं हुए हैं. यह सारा कुछ परिपाटियों और स्वीकार्यता पर आधारित है.
मैं आदरणीया पूर्णिमा वर्मन जी, जिनका नाम किसी विशेष परिचय का मोहताज नहीं है (अभिव्यक्ति, अनुभूति, नवगीत की पाठशाला आदि से संबंधित), के दो दोहे प्रस्तुत कर रहा हूँ -
मंद पवन में उड़ रहे, होली वाले छंद |
ठुमरी, टप्पा, दादरा, हारमोनियम, चंग ॥
होली की दीवानगी, फगुआ का संदेश |
ढाई आखर प्रेम के, द्वेष बचे ना शेष ॥
सादर निवेदन करूँ तो कई-कई बार हमने स्पर्श के साथ उत्कर्ष के तुक को भी देखा और यथावत स्वीकार किया है.
मैं आपके कहे को सदा मान देता रहा हूँ. आप स्वयं विदुषी हैं. यह न कहूँगा कि हम किन्हीं स्वनामधन्य या किन्हीं विशेष के कहे का मात्र अनुकरण करें. किन्तु, जिस जगह गुंजाइश नहीं बन रही थी वहाँ आदरणीय रजनीशजी का किसी विन्दु विशेष के प्रति आग्रह थोड़ा चकित करता हुआ सा लगा था. फिर भी, मैं आपके कहे को सदा ध्यान में रखूँगा. यह अवश्य है कि हिन्दी वर्णमाला के स, श और ष डिस्टिंक्ट वर्ण हैं लेकिन ऐसा कोई नियम नहीं है कि तुकांतता के लिहाज से उनका आपस में प्रयोग किसी त्रुटि का भयानक कारण बन जाता है.
इसी संदर्भ में मैं यह भी निवेदन करूँ, कि, हमने मोहनलाल महतो ’वियोगी’ या अयोध्या प्रसाद सिंह ’हरिऔध’ की कई सुप्रसिद्ध रचनाएँ देखी हैं जिनमें अति उच्च स्तर की अंतरगेयता तथा पंक्तियों में मात्रिकता का सक्षम निर्वहन होने के बावज़ूद उन रचनाओं की पंक्तियों में तुकांतता नहीं हुआ करती थी. जहाँ तक मुझे याद आता है ’वियोगी’ जी की ’नखत-गूँजा भय से’ इसी तरह की एक अति समृद्ध रचना थी.
यह अवश्य है, हम इस चर्चा के दौरान कई तथ्यों पर, जोकि फोनेटिक्स आदि से संबंधित हैं, बात कर गये जिनको अक्सर रचनाओं की टिप्पणियों में साझा होता नहीं देखते. .. :-)))
सादर
जी सौरभ जी ....तुक के सम्बन्ध में अभी तक कोई चर्चा विस्तार से मंच पर कभी नहीं हुयी अतः आप इस सम्बन्ध में भी कुछ जानकारी छंद विधान में अवश्य पोस्ट करिए ....और अब
आपके कहे अनुसार मैं भी दोहराती हूँ मा विद्विषा वहै.. !!.. :)
सीमाजी, आप यदि वर्णानुसार भेद करें तो ष का उच्चारण एकदम से ही अलग होता है, अभी भी ! जहाँ जिह्वाग्र घूम कर तालू के अधिक भीतर की ओर स्पर्ष करती है. यह कुछ-कुछ ख के समकक्ष का उच्चारण होता है. इसी कारण पूर्वांचल में भाषा को भाखा की तरह अभी तक उच्चारित करते हैं. वैदिक छंद की पंक्ति मा विद्विषा वहै’ के उच्चारण के क्रम में यह खुल कर स्पष्ट होता भी है.. . :-)) ..
किन्तु ठीक यही स और श के साथ न होने से इस तरह का कोई आग्रह मैंने अभी तक नहीं देखा है. श के क्रम में जिह्वाग्र के तालव्य और स के क्रम में जिह्वाग्र के दन्तव्य होने अलावे अन्य विशेष प्रयास नहीं होता. यह अवश्य है कि उच्चारण अलग होता ही है. तीनों उच्चारण के लिहाज से अलग वर्ण तो हैं ही.
मैं पुनः कहता हूँ, चूँकि हिन्दी पद्यात्मक पंक्तियों की तुकांतता के लिहाज से ऐसा आग्रह हमने अभी तक नहीं देखा है, अतः मैं आज के बाद से भले इसपर ध्यान दूँ, अभी तक इसका सायास प्रयोग नहीं किया है. व्यक्तिगत मान्यता आदि तो विशेष संदर्भ की बातें हैं.
इसपर तो आपकी हमारी बात भी हो चुकी है न, सीमाजी. चलिये, हम भी सस्वर कहें ..मा विद्विषा वहै.. !!
श और स को तुक के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है या नहीं निश्चित ही इस बात पर यहाँ अब दो मत हैं | क्योंकि मैं श ,ष और स तीनो को भिन्न वर्ण मानती हूँ और शास्त्रीय छंदों में इन्हें तुक के रूप लिए जाने के पक्ष में नहीं हूँ ..हाँ गीत ,नवगीत आदि में इस प्रकार के तुक स्वीकृत हो सकते हैं ...
यह मेरी व्यक्तिगत राय है ज़रूरी नहीं इससे सभी सहमति रखें
इस छंद-संप्रेषण के प्रति अपनी सद्-भावनाएँ व्यक्त करने के लिए सभी आत्मीय पाठकों और गुणीजनों का हार्दिक रूप से आभार व्यक्त करता हूँ.
पुनः, नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ.
आदरणीय रजनीशभाई जी, आपको पुनः नववर्ष की ढेर सारी शुभकामनाएँ. प्रस्तुत रचना का आशय भी यही है.
१. आपकी सबसे पहली टिप्पणी मेरे नोटिफ़िकेशन में अभी भी है. देख रहा हूँ, आपकी वह टिप्पणी अब सुधरे रूप में यहाँ उपलब्ध है. इस हेतु सादर धन्यवाद. आदरणीय, आपने अपनी टिप्पणी का अंदाज़ बदल दिया, इस हेतु हम आपके सादर आभारी हैं.
२. हिन्दी की पद्यात्मक पंक्तियों में तुक के लिहाज से स और श के प्रति कोई विशेष आग्रह हुआ करता है, हमने इस संदर्भ में इस शिद्दत से नहीं सुना है. अलबत्ता, ग़ज़लों के क़ाफ़िया आदि को लेकर ऐसे आग्रह अवश्य हुआ करते हैं. इसी कारण, आदरणीय, आपके कहे पर मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ है. यह अवश्य है कि, शब्दों के उच्चारण के प्रति मैं आपके आग्रह का सादर अनुमोदन करता हूँ.
३. आदरणीय, इस छंद-संप्रेषण में शब्द के प्रयोगों पर भी आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा. कृपया कृतार्थ करेंगे.
४. प्रस्तुत रचना, जैसा कि आपको भी विदित ही है, कुण्डलिया छंद में है. तत्संबंधी कोई सुझाव आपकी ओर से हो तो हम सभी विशेष अनुगृहित होंगे. साथ ही, आपके सार्थक सुझाव पर अमल करने का सहर्ष प्रयास भी करेंगे.
परस्पर सहयोग बना रहे.
सादर
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है सर जी सादर प्रणाम सहित नव वर्ष की ढेरों शुभकामनाएं
आशीर्वाद दीजिये
नया वर्ष ले आ गया, चिड़िया अपने संग
प्रखर पंख में फिर भरी, इक उन्मुक्त तरंग,
इक उन्मुक्त तरंग , नाप ले सारा अम्बर
देखे जिसको विश्व, मान रख उर के अन्दर
नयी सीख लें लोग, समय अब बीत जो गया
शुभ कर्मों से युक्त , रहे अब वर्ष यह नया ...
नव वर्ष की मंगल कामनाएं
ष और ख के तुक का तो मैं नहीं कह सकता क्यूंकि तुलसी बाबा जिस ज़माने में लिखते थे उस ज़माने में ष और ख का उच्चारण हो सकता है एक सा होता हो .. अज अगर कोई ष और ख का तुक बनाए तो निश्चय ही अटपटा लगेगा ..
रही बात दुर्घटना की तो आदरणीय सौरभ साहब क और च की तुक भी हो जाए तो भी कोई भयंकर दुर्घटना नहीं होगी ...(इस तरह का जवाब देने के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ , मगर आपसे भी इस भाषा म एजवाब की उम्मीद नहीं करता )
...धन्यवाद साहब .
आदरणीय सौरभ भईया, बहुत ही सुन्दर और निर्दोष कुंडली छंद से आपने नव वर्ष की बधाई दी है, आपको भी नव वर्ष बहुत बहुत मंगलमय हो |
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