भोर के पंछी
तुम ...
रहस्यमय भोर के निर्दोष पंछी
तुमसे उदित होता था मेरा आकाश,
सपने तुम्हारे चले आते थे निसंकोच,
खोल देते थे पल में मेरे मन के कपाट
और मैं ...
मैं तुम्हें सोचते-सोचते, बच्चों-सी,
नींदों में मुस्करा देती थी,
तुम्हें पा लेती थी।
पर सुनो!
सुन सकते हो क्या ... ?
मैं अब
तुम्हें पा नहीं सकती थी,
एक ही रास्ता बचा था केवल,
मैं .. मैं तुमसे दूर जा सकती थी,
दू...र, बहुत दूर चली गई।
पर दूर जाती छूटती दिशाओं को पकड़ न सकी
अपनी कुचले-इरादों-भरी ज़िन्दगी से उन्हें मैं
हटा न सकी, मिटा भी न सकी,
हाँ, मिटाने के असफ़ल प्रयास में हर दम
मैं स्वयं कुछ और मिटती चली गई ....
जो कभी देखोगे मुझको तो पहचानोगे भी नहीं,
मैं वह न रही कि जिसको तुम जानते थे कहीं,
प्यार से पुकारते थे तुम,
या, शायद पुकारते हो प्यार से अभी भी
अपनी दीवानगी में ... कभी-कभी।
प्रवाहित हवाओं को मैं रोक न सकी,
गति को उनकी मैं थाम न सकी
गंतव्य को जान न सकी।
यह हवाएँ जो ले आती हैं तुम्हारी पुकार
हर भोर मेरे पास, इतनी पास,
यह मुझको बींध-बींध जाती हैं ...
मेरे भोर के सुनहले पंछी
तुम तो वही रहे
मैं वही रह न सकी।
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विजय निकोर
vijay2@comcast.net
Comment
एक पुकार ,,,,,निरीह और पारदर्शी सी मन के आर पार,,,,
आदरणीया सीमा जी,
कविता की सराहना के माध्यम उत्साहवर्धन हेतु आभारी हूँ।
नव-वर्ष की शुभकामनाओं के साथ,
विजय निकोर
आदरणीय विजय जी रचना के माध्यम से पूरे अतीत को वर्तमान के समक्ष खडा कर दिया है आपने
एक करुण गुहार जो अब शायद और भी दूर चली गयी है .......
Like के लिए धन्यवाद लक्ष्मण प्रसाद जी।
विजय निकोर
आदरणीय राजेश कुमार जी,
आपकी सराहना मेरा संबल है। अतिशय धन्यवाद।
विजय निकोर
आदरणीय सौरभ भाई,
इतनी उदार प्रतिक्रिया के लिए मेरा हार्दिक आभार।
विजय निकोर
एक चलचित्र की भांति एक-एक दृश्य मानस पटल पर उभारती एक कसी हुई रचना, सादर आभार इसे शेयर करने के लिए
आदरणीय विजय जी, आपकी रचना प्रभावित कर गयी.
अनुभूति के विस्तार को प्रकृति चाहे जो आयाम --और आवरण भी-- दे, इसी प्रकृति का अनन्य अंग मनुष्य समुदाय इसे अपने हिसाब से अर्थ देता है. इस अर्थ आरोपण में कई-कई स्वप्नजीवियों को जो कुछ भोगना होता है वो सटीक ढंग से इंगित हुआ है.
इस रचना हेतु हार्दिक बधाई.
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