(बह्र: रमल मुसम्मन मखबून मुसक्कन)
वज्न : 2122, 1122, 1122, 22
चोर की भांति मेरी ओर नज़र करती है,
प्यार से बोल जरा प्यार अगर करती है,
फूल से गाल तेरे बाल तेरे रेशम से,
चाल हिरनी सी मेरी जान दुभर करती है,
धूप सा रूप तेरा और कली सी आदत,
बात खुशबू को लिए साथ सफ़र करती है,
कौन मदहोश न हो देख तेरी रंगत को,
शर्म की डाल झुकी घाव जबर करती है,
मार डाले न मुझे चाह तुझे पाने की,
मौत के पास मुझे रोज उमर करती है..
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय उपासना जी आपको ग़ज़ल पसंद आई सराहना हेतु धन्यवाद
मित्रवर संदीप जी आपका अपनापन और स्नेह लिखने को उत्साहित करता है, यूँही साथ बनाये रखें सादर
बहुत सुन्दर ग़ज़ल , श्रृंगार रस से भरपूर ..........
क्या बात है अनंत भाई जी बहुत खूब
इक दम अल्हड सी ग़ज़ल वाह
आदरणीय झा सर आपको रचना पसंद आई आभार. सादर
बढि़या प्रस्तुति है, अपनी बीस साल वाली उमर की याद आ गई, सादर
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