क्या कहूं मैं किस तरह तकदीर का मारा हुआ
सर्द रातें थीं मगर बिस्तर का बंटवारा हुआ
कहने को तो साथ हैं वो हर कदम ओ हर घड़ी
फिर भी उनकी बेरुखी से दिल ये नाकारा हुआ
यूं तो अपने हर तरफ हैं शबनमी दरिया मगर
जब नजर अपनी पडी पानी सभी खारा हुआ
जिनकी उम्मीदों पे सांसें चल रही थीं आज तक
वो न अपने हो सके, अपना जहां सारा हुआ
हंस लो तुम भी दुश्मनों मौका तुम्हारे हाथ है
बाद मुद्दत के कहीं ‘चर्चित’ ये बेचारा हुआ
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
शुक्रिया प्रियरंजन जी........!!!!
अरे वाह सौरभ सर जी सादर नमन है आपकी पारखी दृष्टि को, वाकई 'और' में से 'र' को निकालने की आवश्यकता है....आपके इस अमूल्य मार्गदर्शन - प्रोत्साहन एवं आशीर्वाद को मैं हृदय से प्रणाम करता हूं........!!!
अच्छा है .
जिनकी उम्मीदों पे सांसें चल रही थीं आज तक
वो न अपने हो सके, अपना जहां सारा हुआ
बहुत-बहुत बधाई, भाई.. .
कहने को तो साथ हैं वो हर कदम और हर घड़ी .. इस मिसरे में और को सिर्फ़ औ’ रहने देते.
सकारात्म्क टिप्पणी के लिये दिल से शुक्रगुजार हूं आपका डॉ. प्राची जी........!!!
राजेश कुमारी जी सादर प्रणाम एवं धन्यवाद !!!
मुक्त कंठ से सराहना हेतु हृदय से आभारी हूं आपका संजीव सर जी........
पूरी ग़ज़ल बहुत शानदार कही है विशाल जी ,
हार्दिक दाद क़ुबूल करें
हंस लो तुम भी दुश्मनों मौका तुम्हारे हाथ है
बाद मुद्दत के कहीं ‘चर्चित’ ये बेचारा हुआ.........बहुत खूब, बहुत खूब.
हंस लो तुम भी दुश्मनों मौका तुम्हारे हाथ है
बाद मुद्दत के कहीं ‘चर्चित’ ये बेचारा हुआ----अंतिम शेर ने तो सारी ग़ज़ल की ही रौनक बढ़ा दी बहुत अच्छी लगी दाद कबूल करें
वाह... वाह... वाह...
अच्छी गजल हेतु बधाई.
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