भ्रष्टाचार में भी प्रतिस्पर्धा,
करते आपस में दंगल है !
क्या करूँ कितना मिल जाय ,
बस लूट पाट को बेकल है !!
पैसे के लिए लार टपकाते ,
मार पीट को ये तत्पर है !
बोलबचन से कभी कभी तो,
कर देते सब गुड़-गोबर है !!
कायरता ,पशुता से संचित ,
बनाते नया-नया पैमाना !
चालाकी,मक्कारी ही इनका,
बन चुका धंधा पुराना !!
धन के वन में विचरण करते ,
जैसे इनका ही जंगल है !
जंगल राज़ चला रहे फिर भी ,
कहते है कि सब मंगल है !!
राम शिरोमणि पाठक "दीपक"
मौलिक/अप्रकाशित
Comment
बहुत बढ़िया व्यंग्य है राम शिरोमणि जी .......
प्रयासरत रहें और अन्य रचनाकारों की रचनायें पढ कर उनपर अपने विचारों को साझा करें.
हार्दिक धन्यवाद् अपने उचित ही कहा संदीप कुमार जी
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