सप्त सिन्धु घट बह रहे, कर्ण पार स्वर सप्त.
व्योम वृहत निज व्याप्त है, सप्त वर्ण संतृप्त//१//
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तर्षण लब्धासक्ति का, करता उर संतप्त.
तर्कण कर तर्पण करें, वृथा फिरें अभिशप्त//२//
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मुद्रा, कीर्ति, स्वरुप भ्रम, क्षणिक करें मन तृप्त.
तप्त इष्टि परिशान्तिनी, शक्ति उर अनुज्ञप्त//३//
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डॉ. प्राची
Comment
lekhan me aapki maharat ko mera naman
बहुत ही सुंदर रचना है, आपने इसे अधिक सुगम कर दिया, सादर
आदरणीय राजेश झा जी,
रचना की प्रस्तुति पसंद करने के लिए आभार.
// किंतु जो दिखता है वह अर्थ नहीं है, मूल भाव साझा करें तो अधिक आनन्द आएगा//
शब्दों के आवरण में जिन भावों को समेटा गया है, उस सामंजस्य को टटोलती टिप्पणी के लिए आपका हार्दिक स्वागत है आदरणीय..
प्रथम दोहे में, मानव देह की विशिष्टता का वर्णन है, ...यथा, पिंड में ही समस्त ब्रह्माण्ड व्याप्त है, यह बताने की कोशिश है.
दुसरे दोहे में, तृष्णा और आसक्ति से जनित संताप की बात कही गयी है जीरे आत्म विवेचना (तर्कण ) से ही तृप्त ( तर्पण) किया जा सकता है.
तथा,
तीसरे दोहे में, अतृप्त मन की तपती इच्छाओं को जो शांत कर सकती है वह शक्ति ह्रदय ही जानता है, वो बाहर नहीं अन्दर है, यह कहने की चेष्टा की है.
उम्मीद है, इतने भाव देने मात्र से यह दोहे अब आपतक अपना निहित अर्थ संप्रेषित कर सकेंगे.
सादर.
//तप्तिप्सा = तप्त + ईप्सा अर्थात ज्वलंत चाहना ही है,.. . मुझे यह लिखते हुए एक संशय हुआ था कि क्या 'तप्तीप्सा' लिखना चाहिए या 'तप्तिप्सा'..//
तब यह शुद्ध शब्द तप्तेप्सा होगा, आदरणीया.
संधि के ’गुण संधि’ नियमों के अनुसार अ या आ के बाद इ या ई रहे तो मिल कर ए, उ या ऊ रहे तो दोनों मिल कर ओ तथा ऋ रहे तो अर् हो जाते हैं.
तप्त + ईप्सा = तप्तेप्सा
आगे, गुणीजन और सुधी पाठक अवश्य परख कर कहें. :-))
सादर
रचना पर आपके अनुमोदन हेतु आभारी हूँ सुमन मिश्रा जी, यह दोहे समझने में कठिन हैं, जानती हूँ, इसलिए क्षमा चाहती हूँ, कठिन शब्दों के अर्थ भी देने चाहिए थे, पुनः एडिट कर देती हूँ, सादर.
सादर आभार आदरणीय प्रदीप सिंह कुशवाहा जी
राम शिरोमणि पाठक जी, आपके अनुमोदन हेतु आपकी आभारी हूँ.
आदरणीय डॉ. अजय खरे जी,
रचनाकारिता को मान देने के लिए सादर आभार.
आदरणीय सौरभ भाई जी,
आपके द्वारा इन दोहों पर सराहना पाना , बेहद संतोषकारी और उत्साहवर्धक है, आपकी संवेदनशील गंभीर व उदात्त सराहना हमेशा ही हम नवरचनाकारों को उत्कृष्ट लेखन के लिए प्रेरित करती है.
इन दोहों के भाव व गूढ़ अर्थ पर आपकी सहज समझ प्रणम्य है, सादर.
तप्तिप्सा = तप्त + ईप्सा अर्थात ज्वलंत चाहना ही है,
मुझे यह लिखते हुए एक संशय हुआ था कि क्या 'तप्तीप्सा' लिखना चाहिए या 'तप्तिप्सा'.....कृपया संशय दूर करें . सादर.
आदरणीय योगी सारस्वत जी, आपको यह दोहे और इनमें प्रयुक्त हिंदी शब्द पसंद आये, इस हेतु आपका आभार.
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