ग़ज़ल
(बह्र: बहरे मुजारे मुसमन अखरब)
(वज्न: २२१, २१२२, २२१, २१२२)
दुष्कर्म पापियों का भगवान हो रहा है,
जिन्दा हमारे भीतर शैतान हो रहा है,
जुल्मो सितम तबाही फैली कदम-२ पे,
अपराध आज इतना आसान हो रहा है,
इन्साफ की डगर में उभरे तमाम कांटे,
मासूम मुश्किलों में कुर्बान हो रहा है,
कुदरत दिखा करिश्मा संसार को बचा ले,
जलके तेरा जमाना शमशान हो रहा है,
खामोश देख रब को रोया उदास भी हूँ,
पिघला नहीं खुदा दिल हैरान हो रहा है...
("मौलिक व अप्रकाशित")
Comment
बहुत खूब बंधुवर ...................
आदरणीय गुरुदेव और आदरणीय गणेश सर से सहमत हूँ आप भी अमल करें
जय हो
ग़ज़ल अच्छी है, सुन्दर ख्याल है, कुछ मिसरा और स्पष्ट होने चाहिए थे, जैसा की आदरणीय सौरभ भईया ने भी इशारा किया है, कदम -कदम को शार्ट हैण्ड लिखने की क्या जरुरत, बधाई इस प्रस्तुति पर |
बहरे मुजारे मुसमन अखरब - मफ़ऊलु फाएलातु मुफ़ाईलु फाएलुन - 221 / 2121 / 1221 / 212
कदम-२ ..????
खामोश देख रब को रोया उदास भी हूँ, ..??
जिन्दा हमारे भीतर हैवान हो रहा है,
धन्यवाद अजय सर
आभार भाई शिरोमणि पाठक साहब
sharma ji badia vyang likha he badhai
दुष्कर्म पापियों का भगवान हो रहा है,
जिन्दा हमारे भीतर शैतान हो रहा है,
इन्साफ की डगर में उभरे तमाम कांटे,
मासूम मुश्किलों में कुर्बान हो रहा है,
वाह वाह !!!!!!!!!!!!!!!!!
भावपूर्ण रचना मित्र हार्दिक बधाई .................
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