पीत वसन से सजी धरती सखि
सोन से भाव में तोलि रही सब
सोंधी सी खुश्बू हिया अब उमड़ति
प्रीति के चन्दन लपेटि रही अंग
कुसुमाकर बनि काम कुसुम तन
सिहरन बनि झकझोरि रहे हैं
नील गगन रक्तिम बदरी मुख
मलयानिल बढ़ी खोलि दिए हैं
पतझर के दिन बीते रे सजनी !
कोंपल-हरि मन जीत लिए हैं
कूके कोयलिया मन बागन में
बौर सना रस प्रीति सुधा जिमि
पवन मंद ज्यों बेल लिपटि फिर
दूर भये व्याकुल चितवन करि
आँख मिचौली वासंती संग
आनंदी आनंद मगन ह्वे
सब ऋतुवन को जीति लियो है …..
पियरी सर-सों मन मीत पियारी
प्रीति अधर खिलि मोह लियो है
स्वर्ग अप्सरा मोर मगन मन झंकृत कर हे
दुल्हन वसुधा श्रृंगार चरम करि तीन लोक में
प्रकृति नटी हिय झंडा गाडि के रीझि रही है !!
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सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर 5
प्रतापगढ़ अवध
14.02.2013 11.45 मध्याह्न
Comment
सुंदर बासंती अभिव्यक्ति !
बसंत प्रूव की शुभकामनायें !
वेदिका
शब्दों में अंतरगेयता के कारण यह अतुकांत रचना सरस तथा सप्रवाह तो है ही, कथ्य से मनोहारी व सार्थक भी है. ब्रज की छौंक से रचना की भाषा मधुर हो गयी है.
इस सुन्दर प्रयास पर आपको अतिशय बधाइयाँ, भाई सुरेन्द्रजी.
आदरणीय भ्रमर जी
सादर अभिवादन
आप आये वसंत आया
हार्दिक शुभ कामनाएं
आदरणीय डॉ अजय जी प्रोत्साहन हेतु बहुत बहुत आभार अपना स्नेह यूं ही बनाये रखें वासंती मौसम में मन खिलखिला जाता ही है
आदरणीय विजय जी जय श्री राधे रचना आप के मन को छू सकी सुन ख़ुशी हुयी आप का स्नेह मिला मन गदगद हुआ
sukla ji ati sunder rachna ke liye badhai
पवन मंद ज्यों बेल लिपटि फिर
दूर भये व्याकुल चितवन करि
आँख मिचौली वासंती संग
आनंदी आनंद मगन ह्वे
सब ऋतुवन को जीति लियो है …..
अति सुन्दर! अति सुन्दर अभिव्यक्ति!
विजय निकोर
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