जब घिर जाता है तिमिर में,
शून्य सलीब पर
टंग जाता है तन
और मुक्ति चाहता है मन
माँगती हूँ परिदों से
पंख उधार
और कल्पना की पराकाष्ठा
छूने निकल जाती हूँ
मलय के संग
उडती हुई पतझड़ के
पत्ते की तरह
जुड़ जाती हूँ
बकुल श्रंखला में
चुपके से,
मेघों के साथ लुकाछिपी
का खेल खलते हुए
जब थक जाती हूँ
फिर बूंदों के संग
लुढ़कती हुई
चली आती हूँ धरा पर
वापस
अपने आवरण में||
Comment
आदरणीय सौरभ जी आपको मेरी कल्पना की उड़ान पसंद आई ,रचना पसंद आई सुंदर शुभेच्छा हेतु हार्दिक आभार आपका
प्रिय संदीप जी आपको मेरी कल्पना कि उड़ान पसंद आई ,रचना पसंद आई सुंदर प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार आपका
प्रिय प्राची जी आपको मेरी कल्पनाये पसंद आई ,रचना पसंद आई सुंदर प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार आपका सच में परिंदों को देख् कर बहुत बार कल्पना करती हूँ की काश हमे भी पंख मिलते और हम भी उच्च गगन में उड़ आते
आदरणीय लक्ष्मण जी आपको रचना पसंद आई सुंदर प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार आपका
ब्रजेश कुमार सिंह जी आपको रचना पसंद आई हार्दिक आभार आपका
वाह वाह क्या कल्पना की उड़ान है .................बेहतरीन अभिव्क्ति हुई है!!!!!
जब घिर जाता है तिमिर में,
शून्य सलीब पर
टंग जाता है तन
और मुक्ति चाहता है मन
माँगती हूँ परिदों से
पंख उधार
और कल्पना की पराकाष्ठा
छूने निकल जाती हूँ
मलय के संग
उडती हुई पतझड़ के
पत्ते की तरह!
भाव-शब्दों से बने इस अनुपम चित्र के लिए हार्दिक बधाई, आदरणीय राजेशकुमारीजी.
शुभेच्छाएँ !
वाह वाह क्या कल्पना की उड़ान है .................बेहतरीन अभिव्क्ति हुई है आदरणीया मेम
सादर बधाई आपको
आपकी कल्पनाओं की खूबसूरती...............वाह ! मन खुश हो गया इतने कोमल , सुन्दर, प्रकृति के संग उड़ते, बादलों से लुका-छुपी खेलते, देहबोध की सीमाओं से पार की सैर कर के...
हार्दिक बधाई इस सुन्दर कल्पना पर.
सादर.
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