आज दि. 03/ 03/ 2013 को इलाहाबाद के प्रतिष्ठित हिन्दुस्तान अकादमी में फिराक़ गोरखपुरी की पुण्यतिथि के अवसर पर गुफ़्तग़ू के तत्त्वाधान में एक मुशायरा आयोजित हुआ. शायरों को फिराक़ साहब की एक ग़ज़ल का मिसरा --तुझे ऐ ज़िन्दग़ी हम दूर से पहचान लेते हैं-- तरह के तौर पर दिया गया था जिस पर ग़ज़ल कहनी थी. इस आयोजन में मेरी प्रस्तुति -
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दिखा कर फ़ाइलों के आँकड़े अनुदान लेते हैं ।
वही पर्यावरण के नाम फिर सम्मान लेते हैं ॥
निग़ाहें भेड़ियों के दाँत सी लोहू* बुझी लेकिन
मुलायम भाव आँखों में लिये संज्ञान लेते हैं ॥
हमें मालूम है औकात तेरी, ऐ ज़माने, पर -
करें क्या, बाप हैं, चुपचाप कहना मान लेते हैं ॥
सलोने पाँव की थपथप, किलकती तोतली बोली..
तुझे ऐ ज़िन्दग़ी हम दूर से पहचान लेते हैं ॥
पिशाची सोच के आगे उमीदें भी जिलाना क्या
भरे सिन्दूर जिसके नाम, वो ही जान लेते हैं.. . ॥
इधर जम्हूरियत के ढंग से है मुल्क बेइज़्ज़त
उधर वो ताव से सिर काट इसकी आन लेते हैं ॥
लुटेरे थे लुटेरे हैं.. ठगी दादागिरी से वो--
कभी ईरान लेते हैं, कभी अफ़ग़ान लेते हैं !!
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-सौरभ
*लोहू - लहू, खून
Comment
आज के हालात का हूबहू चित्रण है ये गज़ल सौरभ जी ...
दिखा कर फ़ाइलों के आँकड़े अनुदान लेते हैं ।
वही पर्यावरण के नाम फिर सम्मान लेते हैं ॥
ये तो रीत बन गई है बड़े बड़े व्यावसायिक घरानों की इस देश में ... ओर तंत्र उसका साथ देता है ...
हमें मालूम है औकात तेरी, ऐ ज़माने, पर -
करें क्या, बाप हैं, चुपचाप कहना मान लेते हैं ॥
बेबसी का आलम पर सब कुछ चुपचाप सहना ... इस मजबूरी को बाखूबी लिखा है ...
सलोने पाँव की थपथप, किलकती तोतली बोली..
तुझे ऐ ज़िन्दग़ी हम दूर से पहचान लेते हैं ॥
गिरह को इतना लाजवाब बाँधा है की बस सुभान अल्ला ही कह सकता हूं ...
इधर जम्हूरियत के ढंग से है मुल्क बेइज़्ज़त
उधर वो ताव से सिर काट इसकी आन लेते हैं ॥
इशारों इशारों में गहरी बात कर दी ...
बहुत ही कमाल की गज़ल है .... हर शेर बहुत प्रभावी ओर सटीक टिप्पणी समाज पर ...
आदरणीय सौरभ भाई:
पिशाची सोच के आगे उमीदें भी जिलाना क्या
भरे सिन्दूर जिसके नाम, वो ही जान लेते हैं.. . ॥
सारी गज़ल ही सोचने को मजबूर कर रही है,
आपके ख़यालों को दाद देता हूँ।
विजय निकोर
जानदार-शानदार और ज़िन्दाबाद तरही ग़ज़ल! बेहद ख़ूबसूरत गिरह और अंतिम शे'र के तो कहने ही क्या! वाह-वाह-वाह!!! सादर,
बहुत ही उम्दा लेखन, बिल्कुल आपकी भावभूमि के अनुरूप । एक-एक पंक्ति कम से कम दो बार तो पढ़ने का जरूर मन करता है, सादर
bahut hi umda .. kamal ki tajgi hai bhawon ki .. kitni ghraai se ukere hain wrtmaan ke halat is gazal me kamal kamal
आदरणीय गुरदेव सौरभ सर.............
पिशाची सोच के आगे उमीदें भी जिलाना क्या
भरे सिन्दूर जिसके नाम, वो ही जान लेते हैं.. . ॥
दिखा कर फ़ाइलों के आँकड़े अनुदान लेते हैं ।
वही पर्यावरण के नाम फिर सम्मान लेते हैं ॥
लुटेरे थे लुटेरे हैं.. ठगी दादागिरी से वो--
कभी ईरान लेते हैं, कभी अफ़ग़ान लेते हैं !!
ये पंक्तियाँ मुझे बहुत ही अच्छी लगीं हैं ............
प्रणाम सहित बहुत बधाई सर, साझा करने के लिए ...........
हार्दिक धन्यवाद, डॉ. अजय खरे. आपके उत्साहवर्द्धन के लिए आभारी हूँ.
adarniy saurabh pandey ji gajal ke bhavo ki jitni tareef ki jaye kam hai vyang bahut sateek hai badhai
ग़ज़ल को पसंद करने के लिए हार्दिक आभार रेखाजी.. .
इधर जम्हूरियत के ढंग से है मुल्क बेइज़्ज़त
उधर वो ताव से सिर काट इसकी आन लेते हैं ॥ उम्दा ग़ज़ल आदरणीय सौरभ जी ,हार्दिक बधाई स्वीकार करें
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