बहर : २१२२ ११२२ ११२२ २२
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करके उपवास तू उसको न सता मान भी जा
तेरे अंदर भी तो रहता है ख़ुदा मान भी जा
सिर्फ़ करने से दुआ रोग न मिटता कोई
है तो कड़वी ही मगर पी ले दवा मान भी जा
गर है बेताब रगों से ये निकलने के लिए
कर लहू दान कोई जान बचा मान भी जा
बारहा सोच तुझे रब ने क्यूँ बख़्शा है दिमाग
सिर्फ़ इबादत को तो काफ़ी था गला मान भी जा
अंधविश्वास, अशिक्षा और घर घुसरापन
है गरीबी इन्हीं पापों की सजा मान भी जा
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(स्वरचित एवं अप्रकाशित)
Comment
वाह वाह वाह आदरणीय धर्मेन्द्र सर जी वाह
क्या ही सुंदर गजल कही है मत्ले से लेकर मकते तक
इक इक अश्आर शानदार है
हर इक शेर पर दाद क़ुबूल कीजिए सर जी सादर
गर है बेताब रगों से ये निकलने के लिए
कर लहू दान कोई जान बचा मान भी जा
सर जी बधाई
सादर
आत्मविवेचना और नीतिगत सलाहों से बिदकने वाले इस आत्म-मुग्ध दौर में इस तरह से शेरों को सुनाना ग़ज़लकार के अदम्य मानसिक बल का परिचायक है. नीतिगत तथ्यों को बिम्बगत बना कर सुगढ़ शिल्प के माध्यम से परोसना सच में बहुत भला लगा है.
ग़ज़ल सारे ही शेर संतुष्ट करते हैं. लेकिन अधोलिखित शेर की तो बात ही जुदा है. चचा जहाँ भी होंगे, मुग्ध-मुग्ध सिर हिला रहे होंगे -
गर है बेताब रगों से ये निकलने के लिए
कर लहू दान कोई जान बचा मान भी जा.. .
ग़ज़ब-ग़ज़ब !!
दिल से दाद लीजिये, धर्मेन्द्र भाई.
बहुत बहुत शुक्रिया ram shiromani pathak साहब
अंधविश्वास, अशिक्षा और घर घुसरापन
है गरीबी इन्हीं पापों की सजा मान भी जा!!!!!!!!!
आदरणीय धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी ये पंक्तिया कुछ ज्यादा ही पसंद आई ....बहोत खूब
आपकी नज़र पड़ गई अश’आर सार्थक हो गए। बहुत बहुत धन्यवाद
सिर्फ़ करने से दुआ रोग न मिटता कोई
है तो कड़वी ही मगर पी ले दवा मान भी जा
गर है बेताब रगों से ये निकलने के लिए
कर लहू दान कोई जान बचा मान भी जा
बारहा सोच तुझे रब ने क्यूँ बख़्शा है दिमाग
सिर्फ़ इबादत को तो काफ़ी था गला मान भी जा
वाह भाई ...
एक एक शेअर में आपकी छाप है
ढेरों दाद क़ुबूल करें ...
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