लिखना चाहता हूँ
वो गाँव की अमराई
बहार आते ही जो बौराई
सरसों की अंगड़ाई
बाली बाली गदराई
पर कैसे ??
कहाँ से ले आऊँ
वो रंग भरी स्याही
स्याही ????
कहाँ से ले आऊँ
वो क़लम
जो सफाह पे
चले और भरने लगे
हर्फ हर्फ
रंगीन
बिलकुल बासंती
आए वो
मादक सुगंध
चहकें परिंदे
कूके कोयल
हर्फ दर हर्फ
लिखना चाहता हूँ
बसंत तुम्हे
अल्फाज़ों मे
समेट लेना चाहता हूँ
नये नये कोपल
की किलकारी
शबनम से भीगी
सब्ज़ मुलायम
कालीन
में बैठे
सुनता हूँ जो
मस्त भीनी भीनी
खुनक खुनक सी
हवा
कानों मे छेड जाती है
कभी मीठी सी नज़्म
कभी ग़ज़ल
मैं देना चाहता हूँ
तुम्हे शब्द
बसंत
मैं लिखना चाहता हूँ
मैं पूछ्ता हूँ
फुटपाथ पे पड़े लोगों से
कैसा लग रहा है
अब तो बहार आ गयी न !!
तब उनके चेहरों के
भाव
देख तुरंत आन खड़ा होता है
पतझड़
और टूट जाता है
तुम्हे समेटने का साहस
जो दिन रात तेरी आगोश में है
वो तड़प रहा है
तो हम तो घरों मे
चुपचाप
८ बजे सो कर उठने वाले हैं
नहीं नहीं
इस भ्रम को कैसे लिखूं
बसंत
मैं लिखना चाहता हूँ
और हर बार की तरह
होता हूँ असफल
हारा हुआ
हूँ मैं
शब्दों से
कैसे जीतूं
संदीप पटेल "दीप"
Comment
आदरणीय गुरुदेव सादर प्रणाम
आपकी प्रतिक्रिया पाना मेरी लिए बहुत बड़ी बात है
सच कहूँ तो आपकी प्रतिक्रिया नीर क्षीर कर देती है और वही रचनाओं में आगे सुधार की गुंजाइश पैदा करती है
आपका कहा बिलकुल सही है उसमे में सुधार करूँगा गुरुदेव
ये स्नेह और आशीष यूँ ही बनाये रखिये सादर आभार आपका
प्रणाम
संदीप भाई, विसंगतियों पर धनुष-बाण लेकर पड़ जाना आपकी खासियत है. आज की कश्मकश और ऊहापोह भरी ज़िन्दग़ी में ऋतुएँ दखलंदाज़ी करते भी जैसे सहमती हैं . आपने इस मनोभाव में संवादपरक कविता कह डाली जो मनुष्य की निरीहता को और उभारती है.
बहुत-बहुत बधाई .. .
एक बात : कोंपल स्त्रीलिंग के अनुसार व्यवहार पाती है, अतः नये नये कोपल के स्थान् पर नयी-नयी कोंपल उपयुक्त होगा.
सधन्यवाद.
आदरणीय संदीप कुमार पटेल जी जो चाहते थे लिख गए - बागों की अमराई ,सरसों की अंगड़ाई, बाली बाली गद्रे। वाह क्या चित्रण है।
आदरणीय विनीता जी सादर प्रणाम
इस रचना को सराहने हेतु आपका बहुत बहुत आभार स्नेह यूँ ही बनाए रखिए
भावनाओं को शब्दों में उकेरने की ललक. प्रभावी अभिव्यक्ति. बधाई.
आदरणीय राजेश झा जी सादर प्रणाम
इस रचना को सराह लेखन को मान देने हेतु
आपका बहुत बहुत आभार
स्नेह यूँ ही बनाए रखिए
बहुत ही गहराई से लिखी गई रचना,
मैं देना चाहता हूँ
तुम्हे शब्द
एक उहापोह की स्थिति जहां मन कुछ चित्र आंकता तो है पर आश्वस्त नहीं होता कि भ्रम तो नहीं, यह जो मूर्त है, अमूर्त का आच्छादन उसे संवरने नहीं देता और मूर्त की कसमसाहट उसे छोड़ने नहीं देती.....बहुत सुंदर भाव,शब्द, सादर
बसंत
मैं लिखना चाहता हूँ
आदरणीय अशोक सर जी सादर प्रणाम
इस छोटे से प्रयास को सराहने के लिए आपका बहुत बहुत आभार
स्नेह यूँ ही अनुज पर बनाये रखिये
वाह! इतनी सुन्दर रचना सुन क्यों ना बसंत की रुत और बसंती हो जाए. बहुत सुन्दर प्रस्तुति हार्दिक बधाई स्वीकारें आदरणीय संदीप जी.
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