कुम्हार
रूप दे दो
इधर उधर बिखरी हुई है
ये मिट्टी
रौंद रहे हैं लोग
रंग काला पड़ने लगा
कुछ कीड़े भी पनपने लगे
इसे कोई रूप दे दो
कुम्हार
कि फिर निखर आए
यह एक नए रूप में।
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तारे
चाहता हूं मैं भी
तोड़ लाना आसमान के तारे
तुम्हारे लिए
लेकिन क्या करूं
मेरा कद है बौना
हाथ छोटे।
- बृजेश नीरज
Comment
आदरणीय स्वर्ण जी आपका आभार!
आप की नज्में बहुत अर्थ भरपूर हें
Thanks
वंदना जी आपका आभार!
आदरणीय राजेश कुमार जी आपका आभार!
आदरणीय विजय निकोर जी आपका आभार!
आदरणीय रकताले जी आपका आभार!
जवाहर लाल जी आपका आभार!
उफ..... इतनी गहराई कि अतल.... क्षणिका नहीं ये एटम बम है, सादर
बहुत सुन्दर, बृजेश जी।
बधाई।
सादर,
विजय निकोर
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