घण्टियों की
खनखनाती खिलखिलाहट
से गूँज उठी
हर पूजास्थली..
मन्नत की
लाल चूनर और रंगीन धागों के
ग्रंथिबंधन में आबद्ध हुए सारे स्तम्भ
और बरगद पीपल की हर शाख..
माँ के दर फैलाये झोली,
जोड़े कर, झुकाए सर,
नवदम्पत्ति मांग रहे हैं भिक्षा-
पुत्र रत्न की...
और हम अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मना रहे हैं !!!
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उड़ान भरने को व्याकुल
पर फड़फड़ाते घायल परिंदे सा बेबस
सहमा सिसका
संघर्षरत
अपने वजूद को तलाशता
शोषण दोषण मोषण से आक्रान्त
कुकृत्यों के कुहासों में
नित दफ़न होता
नारी अस्तित्व.....
क्या आज फिर महिला दिवस है ?
Comment
...हमारे समाज की मानसिकता को सही पहचाना आपने डॉ.प्राची जी!...इतना कुछ विपरीत होते हुए भी इस दिन को महिला दिवस कहा जा रहा है...क्यों?...भाव पूर्ण रचना...हार्दिक बधाई!
respected Dr Prachi ji really u have well explained the present senario of woman in india in avery intellual word u fairly deserved for badhai my head off u
रचना के लिहाज से बहुत ही पुष्ट लेखन है, बस एक निवेदन है मैं नारी को नकारात्मक विचारों से लबरेज नहीं देख सकता, हो सकता है यह हकीकत ही है जो अनायास ही लेखनी में आ जाती है परंतु मेरा मानस इसे कबूल नहीं करता क्योंकि मेरे जीवन में चाहे किसी भी रूप में क्यों ना हो, एक भी नारी ऐसी नहीं आई जिन्होंनें मुझमें कोई नकारात्मक विचार भरे हों । इसलिए मेरा विचार है '' सर्वस्व देवीमयी जगत'', सादर
आदरणीया प्राची जी:
आपकी कविता ने बार-बार पढ़ने को बाधित किया।
हर बार यथार्थ मुझको उदास छोड़ गया .. इसलिए
कि इस समाज में परिवर्तन लाने में बहुत समय लग रहा है।
कब जागेंगे हम!
कब देखेंगे हम स्वयं को दर्पण में?
इसका दायित्व कितना कुछ हम पुरुषों पर है। केवल भारत में
ही नही, यहाँ पश्चिम में भी परिवर्तन चाहिए।
आपकी सुन्दर रचना में कसक है, प्रभाव है, सब कुछ है।
हम सभी के संग इसे बाँटने के लिए धन्यवाद।
सादर,
विजय
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