(निराश को आशाप्रद करती रचना)
आगंतुक
Comment
//आत्म विश्लेषण करती हुई यह कविता गहरा प्रभाव् छोड़ने में सफल रही है //
कविता की सराहना के लिए हृदय तल से धन्यवाद, आदरणीय भाई योगराज जी।
आत्म विश्लेषण करती हुई यह कविता गहरा प्रभाव् छोड़ने में सफल रही है. सादर बधाई प्रेषित है.
आदरणीया कुन्ती जी:
कभी-कभी लगता है आत्म-विश्लेषण करते ही सारा जीवन बीत रहा है।
यह मुझको आगे बढ़ने की, स्वयं को सुधारने की प्रेरणा देता रहा है,
और कभी यह मन पर बहुत भारी भी हो जाता है।
कुन्ती जी, कविता की सराहना के लिए मेरा हार्दिक आभार।
सादर और सस्नेह,
विजय निकोर
vijay nikor ji,apki kavita agantuk mein insaan ki manovriti ki bahut hi achhi abhiviakti hui hai..insaan sab se bhag sakta hai par apni antaratma se kabhi nahi bhag sakta hai .ache atma vislesan karne wale hi aisi bhavnaen vyakt kar sakte hai.asha hai log pad ke hriday mein utareinge.daniavad.
आदरणीय संदीप जी:
इस रचना पर प्रतिक्रिया देने के लिए आपने
अपना अमूल्य समय दिया, आपका अतिशय धन्यवाद।
आपने सही कहा है,"ये मन स्थितियां किसी से आज्ञा नहीं लेतीं हैं",
कविता में भिन्न-भिन्न दृश्यों के पटाक्षेप के लिए "दस्तक" दी है।
हार्दिक आभार के साथ,
विजय निकोर
आदरणीय लक्ष्मण जी:
आपकी प्रतिक्रिया ले लिए और कविता के
भाव के समर्थन के लिए आपका आभारी हूँ।
सादर और सस्नेह,
विजय निकोर
बिलकुल सही मनः स्थिति का चित्र किया है आपने श्री विजय निकोरे जी, हमारे मन को इस भौतिक युग में
काम.क्रोध, मद, मोह के वशीभूत बुद्धि को दास बनाने के लिए झकझोरने का प्रयास करते है | अपने मन में उठते
द्वन्द में जो इनके वशीभूत न होकर द्रड़ता से अहम् को नहीं फटकने देता वह इन पर बाजी मारकर सुगंध को
अंगीकार कर सुखी होने में सफल हो जाता है | तब हम कहते है की निराशा पर आशा ने बाजी मार ली |
सुन्दर अभ्व्यक्ति के लिए बधाई
पहली पंक्ति ही बोल देती है
मन के द्वंद्वात्मक द्वार पर
फिर तो जो भाव अनुभव के साथ आपने पिरोये हैं हमारे सौभाग्य हैं के आपको पढने मिल रहा है
जैसा आगाज हुआ कविता का संवाद है मन से मन का ही
अंतरात्मा, अहम् , निराशा स्मृति ये सब मन के ही तो स्वरुप हैं जो मन से ही संवाद कर रहे हैं
वाह वाह वाह आदरणीय ..............आपने जो द्वार बनाया है उसमे यदि ये सभी मनोवृत्तियाँ अन्दर आने के लिए आपसे पूछ रहीं है अर्थात इसने काफी मजबूती प्राप्त कर ली है अनुभवों से क्यूँ ये मन स्थितियां किसी से आज्ञा नहीं लेतीं हैं निर्लज्ज हैं स्वतः ही प्रवेश कर के मन पे अधिकार कर उसका निजी संपत्ति की तरह उपभोग करती हैं
बहुत बहुत बधाई आपको सर जी
अब क्या कहूँ शब्द दायें बाएं खेलने चले गए हैं मन के सागर में कहते हैं लिखे हुए पे लिखना कठिन होता है
आदरणीय केवल जी:
आपके शब्दों ने मुझको प्रोत्साहन दिया है।
कविता की सराहना के लिए बधाई।
सादर और सस्नेह,
विजय निकोर
आदरणीय विजय निकोर जी ! सादर प्रणाम! पूरी कविता धारा प्रवाह सुरुचि पूर्ण झकझोर देने वाली है! और जहाँ मैं, तुम्हारी अवहेलना." बहुत अच्छा लगा बधाई हो!
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online