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    (निराश को आशाप्रद करती रचना)

     

 

         आगंतुक

                                        
मन के द्वंद्वात्मक द्वार पर
दिन-प्रतिदिन   दस्तक   देती
ठक-ठक  की वही  एक  आवाज़,
पर दरवाज़े पर खड़ा हर बार
आगंतुक   कोई   और है।
 
" ठक-ठक-ठक "
" कौन ?"
" मैं, तुम्हारा अहम् "
 
 जब-जब   उसको  करता  हूँ  प्रभंग
 टुकड़ों को फेंक आता हूँ दूर कहीं,
 वह पुन: संपूर्ण लौट आता है,
 माँगता  है  अधिकार  अपना
 और  चंगुल  में  भींच  कर मुझको
                       दबोच   लेता   है।
 मैं  उसके  आधीन
 क्षमा-प्रार्थी-सा
 सदैव  सिर  झुकाए  रहता  हूँ।
 
" ठक-ठक-ठक "
" कौन है आज ? "
 
" मैं, तुम्हारी अंतरात्मा।
  तुमने मुझको पुकारा था न? "
 
" हाँ, हाँ, आओ, आओ,
  मैंने ही तो पुकारा था  तुमको,
  जब मैं असहाय और पीड़ित
  अहम् के चंगुल में
  बन्दी बना था, और
  उससे दम घुट रहा था मेरा।"
 
" मेरी  अंतरात्मा,  प्रार्थना  है यही,
  इस  अहम्  से  दूर  रखो मुझको,
  लोगों  की  बातों  में,  प्रस्तावों में,
  जानता हूँ छिपे हैं  बेशुमार
  भेड़िये,  सिंह,  और  सियार,
  उनके सम्मुख मैं अबोध शिशु-सा
  बिलकुल  बेबात  रह  जाता  हूँ।
  मेरी अंतरात्मा, कृप्या तुम मुझको
  बस अब इन सभी से  छिपाए  रखो।"
 
" ठक-ठक-ठक "
" अब  कौन है? "
 
" मैं, तुम्हारी अवहेलना।
  तुम्हारे पड़ोसी, तुम्हारे  ‘मित्रों’ ने
  यहाँ  भेजा है मुझको।
  जब  भी  आती  हूँ,  तुम  मुझको
  अपनी  अंतरात्मा  की  शक्ति  से
  फिर  न  आने  का  आदेश देकर
  कहीं  दूर  छोड़   आते हो,
  पर  तुम्हारे पड़ोसी, तुम्हारे ‘मित्र’
  सस्नेह बुला लाते हैं मुझको
  तुम्हारी   उपेक्षा   के  लिए।"
 
" ठक-ठक-ठक "
" कौन ? निराशा तुम ?
  तुम फिर लौट आई ?"
 
" हाँ,  मैं  जानती  हूँ  कब-कब
  संघर्ष और संदेह से आक्रांत
  उलझे  और  उदास  हो  तुम,
  मुझसे रहा नहीं जाता, और
  तुम्हारी अविच्छिन उदासी का
                              साथ देने
  अपरीक्षित  चली  आती  हूँ  मैं,
  और तुम्हारी बगल में बैठी
  तुम्हारी वेदना को
  देर तक  सहलाती हूँ।"
 
" ठक-ठक-ठक "
" कौन है इस बार? "
                          
" मैं, तुम्हारा विश्वास।
  निराशा को तुम्हारे संग
  मैं कदाचित सह नहीं सकता।
  प्रत्यय और प्रत्याशा के तिनके बटोर
  तुम्हारे द्वार चला आता हूँ,
  रोको मत, मत रोको, आने दो मुझे।"
 
" ठक-ठक-ठक "
                          
" लौट जाओ, जाओ, कोई नहीं है यहाँ।"
                          
" मैं,  मैं  तुम्हारी  मन:स्थित
  जन्म  से  तुम्हारी,  केवल  तुमसे  बँधी...
  बहुत  नादान  हो  तुम,
  क्षणिक खुशिओं से आकृष्ट
  उन्माद के संक्षोभ में
  धकेल देते हो दूर मुझको,
  और फिर
  उन्हीं खुशियों से क्षत-विक्षत,
  गंभीर और चिंतित,
  अस्त-व्यस्त हो जाते हो तुम..."
 
" अव्यवस्थित और प्रकंपित
  आशंका  के  अँधेरों  में
  ग्लानि की धुँधली
  खाईयों में खो जाते हो।
  पड़े रहते हो प्रायश्चित की
  दलदल में तुम
  हर बात, हर स्वांग का
                      विश्लेषण करते
  कुछ और उलझ-उलझ जाते हो,
  गीले कपड़े के समान
  स्वयं   को   निचोड़-निचोड़,
  अपने ही बनाए कारागार में
                         रहते हो बंदी।"
 
" तुम, तुम ऐसा क्यूँ करते हो?
  तुम जीने का अभिप्राय समझो,
  खोल दो, खोल दो द्वार,
  कर लो स्वीकार फूलों की सुगंध,
  सूर्य   की   औपचारिक   किरणें
  चंद्रमा की शांत शीतल अनुभूति,
  भर लो झोली इन
               छोटी-छोटी खुशियों से
  बच्चों  के  खिलोनों  की  तरह,
  हँस दो कि जैसे हो तुम
                         कठपुतली कोई,
  और हँसते ही रहो फूलों की तरह।"
 
" आज, खोल दो द्वार, और अब
  इसे खुला ही रहने दो,
  फिर खुले द्वार पर तुम्हारे
  कभी  कोई  दस्तक  न  होगी।"
                        -------
                                                                                  --  विजय निकोर
 
(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by vijay nikore on February 24, 2014 at 7:38am

//आत्म विश्लेषण करती हुई यह कविता गहरा प्रभाव् छोड़ने में सफल रही है //

 

कविता की सराहना के लिए हृदय तल से धन्यवाद, आदरणीय भाई योगराज जी।


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on January 15, 2014 at 1:17pm

आत्म विश्लेषण करती हुई यह कविता गहरा प्रभाव् छोड़ने में सफल रही है. सादर बधाई प्रेषित है. 

Comment by vijay nikore on March 13, 2013 at 9:22am

आदरणीया कुन्ती जी:

 

कभी-कभी लगता है आत्म-विश्लेषण करते ही सारा जीवन बीत रहा है।

यह मुझको आगे बढ़ने की, स्वयं को सुधारने की प्रेरणा देता रहा है,

और कभी यह मन पर बहुत भारी भी हो जाता है।

 

कुन्ती जी, कविता की सराहना के लिए मेरा हार्दिक आभार।

 

सादर और सस्नेह,

विजय निकोर

Comment by coontee mukerji on March 13, 2013 at 2:39am

vijay nikor ji,apki kavita agantuk mein insaan ki manovriti ki bahut hi achhi abhiviakti hui hai..insaan sab se bhag sakta hai par apni antaratma se kabhi nahi bhag sakta hai .ache atma vislesan karne wale hi aisi bhavnaen vyakt kar sakte hai.asha hai log pad ke hriday mein utareinge.daniavad.

Comment by vijay nikore on March 12, 2013 at 5:08pm

आदरणीय संदीप जी:

 

इस रचना पर प्रतिक्रिया देने के लिए आपने

अपना अमूल्य समय दिया, आपका अतिशय धन्यवाद।

 

आपने सही कहा है,"ये मन स्थितियां किसी से आज्ञा नहीं लेतीं हैं",

कविता में भिन्न-भिन्न दृश्यों के पटाक्षेप के लिए "दस्तक" दी है।

 

हार्दिक आभार के साथ,

विजय निकोर

 

 

Comment by vijay nikore on March 12, 2013 at 5:00pm

 

आदरणीय लक्ष्मण जी:

 

आपकी प्रतिक्रिया ले लिए और कविता के

भाव के समर्थन के लिए आपका आभारी हूँ।

 

सादर और सस्नेह,

विजय निकोर

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on March 12, 2013 at 3:46pm

 बिलकुल सही मनः स्थिति का चित्र किया है आपने श्री विजय निकोरे जी, हमारे मन को इस भौतिक युग में

काम.क्रोध, मद, मोह के वशीभूत बुद्धि को दास बनाने के लिए झकझोरने का प्रयास करते है | अपने मन में उठते

द्वन्द में जो इनके वशीभूत न होकर द्रड़ता से अहम् को नहीं फटकने देता वह इन पर बाजी मारकर सुगंध को

अंगीकार कर सुखी होने में सफल हो जाता है | तब हम कहते है की निराशा पर आशा ने बाजी मार ली |  

सुन्दर अभ्व्यक्ति के लिए बधाई 

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on March 12, 2013 at 7:42am

पहली पंक्ति ही बोल देती है

मन के द्वंद्वात्मक द्वार पर

फिर तो जो भाव अनुभव के साथ आपने पिरोये हैं हमारे सौभाग्य हैं के आपको पढने मिल रहा है

जैसा आगाज हुआ कविता का संवाद है मन से मन का ही

अंतरात्मा, अहम् , निराशा स्मृति ये सब मन के ही तो स्वरुप हैं जो मन से ही संवाद कर रहे हैं

वाह वाह वाह आदरणीय ..............आपने जो द्वार बनाया है उसमे यदि ये सभी मनोवृत्तियाँ अन्दर आने के लिए आपसे पूछ रहीं है अर्थात इसने काफी मजबूती प्राप्त कर ली है अनुभवों से क्यूँ ये मन स्थितियां किसी से आज्ञा नहीं लेतीं हैं निर्लज्ज हैं स्वतः ही प्रवेश कर के मन पे अधिकार कर उसका निजी संपत्ति की तरह उपभोग करती हैं

बहुत बहुत बधाई आपको सर जी

अब क्या कहूँ शब्द दायें बाएं खेलने चले गए हैं मन के सागर में कहते हैं लिखे हुए पे लिखना कठिन होता है

Comment by vijay nikore on March 12, 2013 at 7:17am

 

आदरणीय केवल जी:

 

आपके शब्दों ने मुझको प्रोत्साहन दिया है।

कविता की सराहना के लिए बधाई।

 

सादर और सस्नेह,

विजय निकोर

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 12, 2013 at 6:50am

आदरणीय विजय निकोर जी !  सादर प्रणाम! पूरी कविता धारा प्रवाह सुरुचि पूर्ण झकझोर देने वाली है! और जहाँ  मैं, तुम्हारी अवहेलना." बहुत अच्छा लगा बधाई हो!

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