लुढ़क के वहीं आ खड़ी हुई ज़िंदगी
जहाँ थे कभी खड़े,
कदम थे कितने नपे तुले
किस राह पर , कहाँ फिसल के रह गये.
मुड़कर देखना क्या ?
सोच के पछ्ताना क्या ?
हवा भी कुछ ऐसी बही,
चट्टान ढलान में ठहरता क्या ?
दूर दूर तक था रेगिस्तान
नैनों में कितने रेत पड़े,
आँसू किसके बहकर रहे
अतीत के या आने वाले कल के.
फूलों पर चलते थे कभी -
कब पंखुड़ियाँ रह गये मुरझा के,
एक शुष्क पात भी नहीं रहा
देखूँ जिसे कभी नज़र भर के.
जिधर भी गये हाथ बढ़ाए ,
साथी रह गये सपने बनके -
ऐसी भी क्या बेरूखी अपनों से,
कब रहा कोई सदा अपना बनके.
घने बादल से बरसे बहुत सी यादें
कुछ छिटपुट सुनहरी वसंत की बातें,
कितने झंझावात से जूझते
भीड़ में अकेले रहने की बातें.
सरदी में प्रभाती मुसकान
उभरते थे होठों के कोरों पर,
उस हास में सबकुछ विलीन हुआ
तूलिका फिसलती रही रंगीन चित्र पर.
सब कुछ छूट के रह गये
वो हरी भरी राहें जिसपर थे चलते,
इठलाकर – दौड़ते थे कभी,
पेड़ों की छाया तले , जो निरंतर रहे हटते.
जीवन का एक फासला तय कर
उमड़ी नदी रही कुछ सूखी,
फिर उमड़ी, सागर को चली
एक धारा को पकड़ने जिंदगी अनोखी.
पुरानी गयी , नयी पीढ़ी उपजी
विचारें उभरते ज्वार-भाटे सी,
ज़िंदगी संघर्ष ही नहीं, चुनौती भी
है “ज़िंदगी” को समझ पाने की.
Comment
ज़िंदगी के टूटे ख़्वाबों और बिछुड़ी यादों में ज़िंदगी को तलाशती सी अभिव्यक्ति आ. कुंती मुखर्जी जी
बधाई स्वीकारे
ज़िंदगी संघर्ष ही नहीं, चुनौती भी
है “ज़िंदगी” को समझ पाने की.......... बहुत बहुत सुन्दर रचना .. बधाई आपको
बहुत सुन्दर!
बढि़या प्रस्तुति,
कुन्तिजी !
बहुत ही प्रभावी और अनुभवी खाका है ऊपर से नीचे की ओर सरकते जीवन और उससे बंधे ,बदलते रिश्तों के हेर-फेर में उठते -बैठते मन का . कछमछाहट और उससे ताल-मेल बिठाते जीवन को स्पष्ट उजागर करती है आपकी यह रचना . बहुत सुंदर है . बधाई .
//ज़िंदगी संघर्ष ही नहीं, चुनौती भी
है “ज़िंदगी” को समझ पाने की.//
हर कदम पर जिन्दगी चुनौती ही है, यदि चुनौती की तरह ली जाय, भावनाओं का ज्वार इस रचना में रेगिस्तान की आंधी की भाति समाहित है,अच्छी रचना, बहुत बहुत बधाई आदरणीया कुंती मुखर्जी जी ।
आदरणीया कुन्ती जी:
ज़िन्दगी के जैसे दो कमरे हों...
एक आशा से भरा, और एक निराशा से ...
और दोनों ही सच हैं। हम एक कमरे से दूसरे
और दूसरे से पहले कमरे आते रहते हैं।
यह निराशा का कमरा कभी-कभी बहुत दुखद होता है,
बहुत दुखद ...
जिससे निराशा मिलती है, वह नहीं जानता दूसरे का दर्द
कितना गहरा है, कितना घना है ...
एक रास्ता और है... आशा और निराशा दोनों से अप्रभावित रहना,
i.e. being not affected by all pairs of opposits. It is difficult,
but by practice it is possible, though not all the time and
not in all the situations for us householders.
इस भावयुक्त कविता के लिए बधाई।
सादर और सस्नेह,
विजय
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