प्यास है
लरजते होंठों में
आज भी वही
जब कहा था तुमसे
मैं प्यार करता हूँ
और देखा था
खुद को
तुम्हारी आँखों से
पागल सा
दीवाना सा
कुछ पल बाद
वो झुकीं
और इक मीठी सी सदा
हट पागल
जाता हूँ
आइने के सामने
देखने वही
अक्स
लेकिन धुंधला
हो जाता है
मुझे याद है अब भी
जब तुमने
झांका था
मेरी आँखों में
थामा था
सिरहन भरा
मेरा हाथ
अपने नाजुक से
हाथों से सहमते हुए
और कहा था
सच !!!
कभी साथ तो न छोड़ोगे !!!!!
और खिल उठी थी
मेरी बंजर जमी
गुलशन गुलशन
गुलजार
आज भी
हाँ आज भी
यहाँ नमी है
लेकिन
बंजर है ये जमी
एक बार फिर
दरो दीवार
चीखते हैं
बर्तन बर्तन
कराहता है
जब मैं उठता हूँ सुबह
तुम्हारे बिन
बिस्तर
नस्तर हुआ जाता है
गुदाज तकिया
पत्थरों सा
सख्त
सर पटक
पडा रहता हूँ
इंतज़ार में
आने वाली
तन्हा शाम के
और कातिल रात
जो दम घोंटती है
चाँद सितारों की भीड़ में
सन्नाटों में
कभी कभी
सुनाई दे जाती है
सुबकने की आवाजें
दफ्फतन
ताकता हूँ
अगल बगल
दीवारों के कान जो होते हैं
टटोलने लगता हूँ
एक बेजान की
रग- रग
जिससे ले लेता हूँ
पल पल की जानकारी
लेकिन एहसास
सूखे के सूखे
यादों का सिलसिला
रुकने का नाम नहीं लेता
बारिश होने लगती है
आ जाती है बाढ़
सब बह जाता है
हर ओर
सूखा ही सूखा
बंजर ही बंजर
तुम बिन
संदीप पटेल “दीप”
Comment
वाह ! संदीप जी, प्रेम के दीवाने तो औरों को प्रेम में पागल ही दिखाई देते है | प्रेम की बारिश से जन नयन कौर भीगे तो
वह प्रेम की उत्कृष्ट सीम है | प्रेम बिन तो चाहि (अव्वल) भूमि भी ऊसर ही लगती है | सुन्दर भाव अभिव्यक्ति के
लिए हार्दिक बधाई
आदरणीय भाई संदीप जी सादर, प्रेममय शुरुआत और मार्मिक अंत. सुन्दर रचना.
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