गतांक...2 से आगे-- आज दिवाली का दिन था। घर के सभी लोग चिंतित और अस्त-व्यस्त से बेहाल हो चुके। मेरे मुहल्ले के लोगों का तांता मेरे घर एवं अस्पताल में मेरी शैया के इर्द-गिर्द लगा हुआ था। मेरे मिलने वालों से डाक्टर और नर्स भी काफी परेशान हो थक चुके थे। अब तक इन लोगों ने मेरे रिश्तेदारों एवं मिलने वालों से एक सामंजस्य सा बिठा लिया था। नवम्बर मास का समय और सायं के 6.00 बज रहे थे। किसी को भी आज अमावस्या के दिन घरों में दीप जलाने की कोई चिन्ता नहीं हो रही थी। मेरे बार-बार कहने पर भी लोगो ने जबाब दिया कि जिन बच्चों के पटाखों की बात मैं कर रहा हूं, उन्ही बच्चों ने ही तुम्हारे पास भेजा है।....कह कर मुझे चुप रहने की सलाह देते रहे। मुझे बहुत अखर रहा था। अतः मैंने अपने घर वालों कों भी जबरन दीप जलाने हेतु घर भेज दिया। तब जाकर मुहल्ले वालों की भीड़ कम हुई। लोगों ने मेरे स्वस्थ्य होने के लिए महामृत्यृंजय जाप करवाया, दीपदान किया और भी जो कुछ मान-मनौतियां थी, सब कुछ किया। उस दिन मेरे मुहल्ले में रात 8.30 बजे लोगों ने दीपावली की पूजा की थी। बच्चों ने पटाखें नहीं दगाये थे। मेरा बच्चों के साथ बच्चों जैसा ही नाता था। उनके उत्साह वर्धन हेतु मैं तरह तरह के खेल कराना, नववर्ष, जन्माष्टमी आदि अनेक पर्वों पर मनोरंजक कार्यक्रम प्रायोजित करना और उनके प्रोत्साहन हेतु मिठाई व तमगे आदि उपहार देना, सब मैं अपने संसाधनों से ही किया करता था। सारे बच्चे भी मुझे उतना ही प्यार करते थें, जितना कि मैं उन्हे करता था। सच्चे मायने में जिस आत्मीयता का एहसास मुझे आज हो रहा था, वह इन्ही बच्चों के प्रेम का प्रतिफल ही था। अतः किसी ने सच ही कहा है कि सच्चे मन और निःस्वार्थ भाव से किया गया कार्य कभी व्यर्थ नही जाता है।
अस्पताल में लगभग शांति का वातावरण हो चुका था। मन में न जाने क्या-क्या विचार पानी के बुलबुलों की भांति उठ रहे थें और क्षण में ही लुप्त भी हो रहे थे। तभी मेरे मुख से वाणी प्रस्फुटित हुई कि हे! ईश्वर यह रोग आप का ही दिया हुआ है, और मैंने सदैव ही अपने इस रोग को दूर करने का ही प्रयत्न किया है। फिर भी यदि आपकी यही इच्छा थी, तो मुझे कोई दुःख नहीं है। परन्तु उन्हें, जिन्हे मेरे व्यवहार खान-पान, रहन-सहन आदि का ज्ञान है, वे भला किस प्रकार आपको क्षमा कर सकेगें। इसलिए हे! प्रभो! जिस प्रकार आप लक्ष्मण जी के प्राण बचाने के लिए अमृत संजीवनी लेकर आये थे। ठीक उसी प्रकार आप अपने इस उपासक को भी एक बार जीवन दान दिलाने की दया करें। यह जीवन मैंने स्वयं के लिये नहीं मांगा अपितु उनके लिए जो मुझे जीव को जानते थे। बस इन्ही पांच सेकेन्ड में ही इतना सब कुछ हो गया था। अचानक ही ‘‘प्रभु की कुपा भयहु सब काजु। जनम हमार सुफल भय आजु।।‘‘ मैं इधर चिंतनशील ही था, और उधर प्रभु ने डा0 महोदय को अमृत संजीवनी का ज्ञान दे दिया। बस फिर क्या था मुझे जोर की सर्दी लगी। मैं अपने पास बैठे भाई को नर्स के पास भेजना ही चाहता था कि डाक्टर स्वयं नर्स के साथ मेरे पलंग पर आ पहुंचे थे। वस्तुस्थिति को उन्होने जैसे पहले से ही भांप लिया था। मै अधर में पहुंच चुका था अथवा प्रभु का आदेश मिलना बाकी था। तत्काल मुझे इंजेक्शन लगाया गया। अब मुझे बहुत जोर की सर्दी के स्थान पर तेज पसीना आने लगा फिर मुझे होश नहीं रहा कि क्या हुआ? क्रमशः.....4
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आ0 वंदना तिवारी जी, सादर प्रणाम! क्षमा चाहता हूं कि मै आपके कमेंट को समय से पढ़ सका। आपका तहेदिल से आभार प्रकट करता हूं। सादर,
आदरणीय, राम शिरोमणि पाठक जी, प्रिय मित्र, प्रस्तुत कथा में आपकी रूचि और व्यग्रता के लिए आपका बहुत-बहुत आभार एवं धन्यवाद। सादर,
आदरणीय, अशोक कुमार रक्ताले जी, प्रस्तुत कथा में आपकी रूचि और व्यग्रता के लिए आपका बहुत-बहुत आभार एवं धन्यवाद। सादर,
अपनत्व और इश आशीष से भरे इस भाग का घटनाक्रम पढ़ने के पश्चात मन में इसके अगले और पिछले भाग को भी पढ़ने का मन हो रहा है. जब तक अगला भाग प्रकाशित हो मैं पिछले पर ही नजर डाल लूँ.
आदरणीय केवल भाई जी बहोत ही सुन्दर आगे की कड़ी का इंतज़ार रहेगा ....
आदरणीया, कुन्ती मुखर्जी जी, सुप्रभात! ईश्वर जो कुछ करता है हमारे भले के लिए ही करता है। हम हैं कि अहम् वश समझने को तैयार ही नही होते। जैसा कि शीर्षक है उसी के अनुरूप सुन्दर सकारात्मक सोच भी है। आशा करता हूं कि आप सभी को यह कथा पसंद आयेगी। आपका बहुत-बहुत आभार। सादर,
केवलजी नमस्कर . आपकी कथा पढ़ रही हूँ..आशा है आगे के अंश में सुखद परिणाम होगा.बेसबरी से इंतज़ार रहेगा.
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