आंखों देखी
बात फ़रवरी 1986 की है. भारत का पाँचवा वैज्ञानिक अभियान दल अंटार्कटिका में अपना काम समाप्त कर चुका था. शीतकालीन दल के सभी 14 सदस्य भारतीय अनुसंधान केंद्र “ दक्षिण गंगोत्री ” में पहुँच चुके थे. इस दल को अगले एक वर्ष तक यहीं रहना था. ग़्रीष्मकालीन दल के करीब सब अभियात्री 15 किलोमीटर दूर खड़े जहाज “ एम.वी. थुलीलैण्ड “ में थे. मौसम बेहद खराब हो जाने की वजह से एक दो वैज्ञानिक जहाज में नहीं पहुँच पाये थे. कुछ और औपचारिकताएँ बाकी थीं...इंतज़ार था मौसम के ठीक होने का. मौसम का आलम यह था कि हवा लगभग 80 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ़्तार से बह रही थी और सूखे बर्फ़ के कण उड़ा रही थी. इन उड़ते बर्फ़ के कणों की वजह से ज़मीन से लगभग 12 फीट ऊपर तक कुछ भी नहीं दिख रहा था. दृष्टि ऐसे बाधित हो रही थी कि अपना हाथ सीधे फैलाने से उनमें पहने हुए दस्ताने भी नहीं दिख रहे थे. .......अचानक दल के एक वरिष्ठ सदस्य जो भारतीय सेना के अधिकारी थे, गम्भीर रूप से बीमार पड़ गये. शीतकालीन दल के डॉक्टर ने उनकी परीक्षा की तथा परिस्थिति को देखते हुए जहाज में उपस्थित अन्य दो डॉक्टरों से विचार विमर्श करने की इच्छा व्यक्त की. अभियान दल के नेता भी जहाज में ही थे. उन्हें भी सूचित करना अनिवार्य था. उन दिनों मोबाईल फोन की सुविधा नहीं थी और न ही ई-मेल या स्काइप के माध्यम सम्पर्क व्यवस्था. “ दक्षिण गंगोत्री “ में उपलब्ध बेतार द्वारा तथा सैटेलाईट फोन से लगातार कोशिश करने के बावजूद सम्पर्क नहीं हो पा रहा था. लेकिन एमर्जेंसी चैनेल पर कोशिश करने के कारण सुदूर अट्लांटिक समुद्र मे ब्राज़ील के पास खड़े एक जहाज के कप्तान ने हमारी पुकार सुनी. वे सहायता करने को तत्पर थे लेकिन उनका हम तक पहुँचना नामुमकिन था. अंतत: “ थुलीलैण्ड ” से सम्पर्क हुआ और अभियान दल के नेता ने सूचित किया कि वे दोनों डॉक्टर तथा अन्य सहायता लेकर शीघ्रातिशीघ्र पहुँच रहे हैं. खराब मौसम होते हुए भी भारतीय नौसेना के पायलट नन्हे चेतक हेलिकॉप्टर लेकर आने की तैयारी में जुट गये. दक्षिण गंगोत्री में लैण्ड करते वक़्त उन्हें नीचे कुछ भी नहीं दिखता अत: एक दल को स्टेशन के बाहर भेजा गया ताकि वे हेलिकॉप्टर को उतरने में मदद कर सकें. मुझे आदेश हुआ था कि मैं स्टेशन की छत पर बैठकर पूरी गतिविधि पर नज़र रखूँ. बड़ी मुश्किल से जब मैं “ दक्षिण गंगोत्री ” की छत पर चढ़ा तो सामने का दृश्य देख हैरान रह गया. तूफान तेज़ चलने के बावजूद उड़ते बर्फ़ के कण अब मेरी दृष्टि को बाधित नहीं कर रहे थे क्योंकि मैं ज़मीन से 15 फीट ऊपर था. समुद्र की तरफ मैंने देखा कि आसमान में एक जहाज उल्टा लटका हुआ है. वास्तव में मैं “ थुलीलैण्ड ” की मरीचिका देख रहा था. इसे मिराज इफेक्ट कहते हैं और अंटार्कटिका के ठण्डे रेगिस्तान में ऐसा अक्सर देखा जाता है. देखते ही देखते उस जहाज के डेक से एक लाल बत्ती नीचे की ओर लुढ़कती नज़र आयी..... अर्थात हेलिकॉप्टर ने उड़ान भरी. क्योंकि मैं मरीचिका देख रहा था, कुछ सेकण्ड के लिये लाल बत्ती नीचे आती दिखी. फिर जैसे ही हेलिकॉप्टर क्षितिज से ऊपर आया मैंने उसे स्वाभाविक रूप में देखा. पाँच मिनट से भी कम समय में सब लोग पहुँच गये और नयी कहानियाँ लिखी जाने लगीं. मेरे अनुभव की झोली भी भरनी शुरु हो गयी थी.
जो उस दिन मैंने देखा था उसका चित्र सिर्फ मेरे मस्तिष्क में है. सोचा आप लोगों से साझा करूँ. तीन वर्ष से अधिक समय मैंने बिताया है अंटार्कटिका के बर्फीले रेगिस्तान में.......” क्या भूलूँ क्या याद करूँ “.
( सत्य घटना – मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीया डॉ प्राची जी, आपका प्रोफाईल पढ़ने के बाद आशा थी कि अंटार्कटिका के बारे में आपको अवश्य ज्ञान होगा. खुशी हुई देखकर कि आप वैज्ञानिक शब्दों के दाँव-पेंच से बाहर उस अद्भुत महाद्वीप को जानने के लिये उत्सुक हैं. मैं आप लोगों की जिज्ञासा को संतुष्ट करने की पूरी कोशिश करूंगा.
मुझे मित्र रूप में स्वीकार करने के लिये हृदय से आभारी हूँ.
आदरणीय श्री रक्ताले, बहुत बहुत धन्यवाद. आपसे और प्रेरणा मिली आगे कुछ लिखने की. पुन: सादर आभार
अंटार्कटिका की दुनिया की सबसे रोचक कोई जानकारी है, जो मैंने आज यहाँ पडी है...अन्यथा सिर्फ ओजोनहोल, फिज़ियोग्राफी और जैवविविधता के लिए ही इसके सन्दर्भ को जाना है... मिराज , बर्फ कणों की आंधी, और १५ फीट ऊपर का साफ़ आकाश, यह सब बहुत नया है जानना.
इस सजीव संस्मरण के लिए आभार..
इस विषय में फोटोग्राफ, वीडियो, और भी बहुत कुछ साँझा करिये...उत्सुकता है और जानने की
सादर.
आदरणीय बहुत सुन्दर रोचक घटना का सविस्तार वर्णन किया, ऐसी परिस्थित के बारे में सोचकर ही रोंगटे खड़े हो जा रहे हैं. आभार.
आदरणीय सौरभ जी, बहुत खुशी हुई जानकर कि आपका अंटार्कटिका के बारे में ज्ञान भी है और कौतूहल भी. मुझे विजय जी से तथा आपसे निश्चित प्रेरणा मिली है कि और कुछ अनुभव साझा करूँ. शीघ्र ही भेजूंगा.
कार्यालयी दौरों की विवशता से मैं परिचित हूँ. इसके बावजूद आप जिस तरह इस मंच के लिये सक्रिय हैं वह काबिले तारीफ है. इलाहाबाद में आप जिन आर्मी ऑफिसर को जानते हैं क्या उनका परिचय मिल सकता है? अंटार्कटिका अभियानों के दौरान बहुत से आर्मी ऑफिसर और जवानो से मित्रता हुई थी. हो सकता है इतने वर्षों बाद कोई पुराना दोस्त मिल जाये....सादर आभार.
डॉ. शर्दिन्दु, आजकल कार्यालयी दौरों के कारण कई हफ़्ते से नियत नहीं रह पा रहा हूँ. दूसरे आयोजनों मेंभागीदारी. आपकी इस पोस्ट पर विलम्ब से आ पाया हूँ. मगर पढ़ कर दिल खुश होगया.
अंटार्कटिका.. अपनी दुनिया में भी एक अलहदी दुनिया. सही कहिये तो पेंग्विन की दुनिया. ,,!
सही कहा आपने उसकी दक्षिण गंगोत्री के दरवाजे सभी के लिए नहीं खुले हैं. आपका संस्मरण बड़ा ही सहज बन पड़ा है. इलाहाबाद में मेरी कलोनी में मेरी पहचान के रिटायर्ड आर्मी आफ़ीसर हैं वे भी अंटार्कटिक पर शायद दो दफ़े हो आये हैं. उनसे कुछ-कुछ सुनने जानने का मौका मिलता रहा है. या, ’धर्मयुग’ पत्रिका में पहले अभियान दल के बारे में विस्तार से छपा था, उससे बहुत कुछ जानने को मिला था. तब हम विद्यार्थी ही थे. उस क्षेत्र को लेकर कौतुहल तो रहता ही है.
आपके रोचक संस्मरण के लिए आपको हार्दिक बधाई.
श्रद्धेय विजय जी, आपने व्यस्त रहते हुए भी जिस उत्साह के साथ मेरा लेख पढ़ा उससे मेरा मान बढ़ा है. आपके दिये हुए सुझाव समुचित हैं और मैं अपने अगले लेख में मानचित्र और अंटार्क्टिका के फोटो देने की कोशिश करूंगा. साथ ही एक छोटा सा परिचय भी कि भारत का इस बर्फीले महाद्वीप के साथ क्या सम्बंध है. अगर दूसरे पाठकों को अंटर्कटिका के बारे में जानकारी बिलकुल नहीं है तो मुझे खुशी होती यदि प्रश्न उठाया जाता कि ' आखिर यह बला क्या है...'
आदरणीय शरदिंदु जी:
खेद है कि घर में परिस्थितिवश मैं आपके लेख पर प्रतिक्रिया देर से दे पा रहा हूँ।
आपका आलेख अति रोचक है, बधाई... मुझको अंटार्कटिका का ज्ञान नहीं है, अत: मेरे लिए
इसे पढ़ना और भी महत्वपूर्ण था। पढ़ते-पढ़ते जिज्ञासा बढ़ती गई... like a mystery
novel... और अंत सचमुच सुखद लगा।
लेख रोचक लगा, परन्तु शुरूआत में घटना की कड़ी को समझने में कुछ दिक्कत हुई।
अत: लेख की पहली कई पंक्तियों को तीन बार पढ़ा। हाँ लेख को अनुच्छेदों में विभक्त
कर सकें तो और भी पठनीय हो जाएगा।
अंटार्कटिका के विषय में हमारे ज्ञान हेतु कुछ और मूल जानकारी दे सकें तो मेरे लिए
और शायद अन्य पाठकों के लिए भी लाभदायक होगी। साथ में एक मानचित्र भी दे
सकते हैं।
अंटार्कटिका में आपके अन्य अनुभव जानने की भी जिज्ञासा है।
सादर,
विजय निकोर
भाई केवल प्रसाद जी, मेरा उद्देश्य कुछ ऐसा ही है. वास्तव में अंटार्कटिका ऐसी जगह है कि बहुत चाहते हुए भी सबके लिये जाना सम्भव नहीं. किस्मत से मुझे ऐसा अवसर मिला, एक बार नहीं चार बार. इसी पृथ्वी का अंश है यह मनुष्यहीन महाद्वीप लेकिन हमारे रोज के परिचित जगत से कितना भिन्न!!!! आपने मेरा उत्साह बढ़ाया है, मैं आपका आभारी हूँ. कुल ग्यारह लोगों ने यह पोस्ट देखा है अभी तक, प्रतिक्रिया सिर्फ आपसे मिली. कौतूहली पाठक न हों तो आगे लिखने में संकोच होगा ..........कहीं कोई गलती से भी ऐसा न सोचे कि मैं अपनी बखान रहा हूँ......यह तो केवल अपने अनुभव साझा करने की बात है.....अनुभव साझा करने से ही ज्ञान पल्लवित और प्रसारित होता है. यदि साहित्य रचना की बात होती तो अपनी धुन में जब और जितना चाहूँ लिख सकता हूँ....लेकिन यहाँ साहित्य नहीं है.अत: मुझे तटस्थ रहना पड़ेगा कि कहीं मैं नीरस और निरर्थक बातें लिखकर ओ.बी.ओ. सदस्यों का समय तो नहीं बर्बाद कर रहा....!
आदरणीय शरदिंदु मुखर्जी जी, सादर प्रणाम! अतिरोचक कथा। सर जी, आपकी स्मृतियां हम लोगों के लिए ज्ञान और प्रकृति से प्यार करने का साधन बन जायेगा। आप यूं ही लिखते रहें। बहुत बहुत बधाई। सादर,
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