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गुरु वंदन //छंद झूलना (प्रथम प्रयास) ...डॉ० प्राची

छंद झूलना 

(२६ मात्रा,  ७,७,७,५ पर यति , चार पद , अंत गुरु लघु )

गुरु ज्ञान दो, उत्थान दो, वंदन करो स्वीकार 

अनुभव प्रवण, उज्ज्वल वचन, हे ईश दो आधार 

तज काग तन, मन हंस बन, अनिरुद्ध ले विस्तार 

प्रभु के शरण, जीवन- मरण, पाता सहज उद्धार.....

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 3, 2013 at 10:38am

//झूलना छंद में ७-७-७-५ का नियम है...तब अंतिम दो चरण ७-५ में तो सिर्फ शब्द को ही अलग लिखा गया है, यहाँ तो यति का आभास भी नहीं हो रहा..... क्या रचनाकर्मिता में इसे भी साधने की आवश्यकता है.....//

इसे अपने स्तर से समझ कर ही साझा कर पाऊँगा, आदरणीया.

वैसे प्रथम दृष्ट्या उक्त चरणों के मध्य यति का आभास भले न हो परन्तु वे पद के विशिष्ट भाग तो हैं ही.

सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on May 3, 2013 at 10:33am

आदरणीय सौरभ जी,

व्यस्ततम समय में भी आप इस रचना के लिए समय निकाल सके इसलिए आपकी हृदय से आभारी हूँ..

आपने जिस तथ्य को इंगित किया है (कि दो यतियों के बीच के चरण कथ्य व भाव से समरसता रखते हुई भी स्वतंत्र हो ) वह शिल्प के लिहाज से नियम न होते हुए भी बहुत महत्वपूर्ण प्रतीत होता है, क्योंकि वास्तव में यदि यह स्वतंत्रता नहीं होती तो यति भी महसूस नहीं होती...

जिस तरह आपने दोनों अपेक्षित चरणों में सुधार प्रस्तुत किया है..वह यथोचित है... और हृदय से मान्य है आदरणीय.

अनुभव प्रवण, उज्ज्वल वचन, हे ईश दो आधार

प्रभु के शरण, जीवन-मरण, पाता सहज उद्धार

इस मान्यता को तो नियम ही होना चाहिए...क्योंकि यह शिल्प को और सुगढ़ करता है...:))

अब एक और संशय उत्पन्न हुआ है..... जैसे कि झूलना छंद में ७-७-७-५ का नियम है...तब अंतिम दो चरण ७-५ में तो सिर्फ शब्द को ही अलग लिखा गया है, यहाँ तो यति का आभास भी नहीं हो रहा..... क्या रचनाकर्मिता में इसे भी साधने की आवश्यकता है..... कृपया स्पष्ट करेंगे ! सादर.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 3, 2013 at 12:54am

आपकी रचना पर विलम्ब से आया हूँ. आजकल व्यस्तता सिर से चू रही है.

झूलना छंद पर आधारित रचना सुन्द बन पड़ी है.  एक बात अवश्य है, जो कि अनौपचारिक ही है किन्तु ध्यान दिया जाय तो रचनाओं में सुन्दरता बढ़ जाती है, वह ये कि पद में यतियों का बड़ा महत्त्व तो होता ही है, उसके बाद के चरण पिछले चरण या अन्य चरणों से भावार्थ के लिहाज से एकसार हों किन्तु तनिक स्वतंत्र हो. इसका सुन्दर उदाहरण दोहे या कुण्डलिया या ऐसे ही मात्रिक छंद होते हैं.

गुरु ज्ञान दो, उत्थान दो, वंदन करो स्वीकार
अनुभव प्रवण, उज्ज्वल वचन, का ईश दो आधार

प्रथम पद सम्यक है. दूसरे पद में तृतीय चरण का प्रारंभ का से होना उस चरण की पिछले पद पर निर्भरता बताता है. इस का को यदि हे कर दिया जाय तो इसतरह की बाध्यता या निर्भरता समाप्त हो जायेगी. और भाव भी नहीं बदलेंगे.

इसी तरह,

तज काग तन, मन हंस बन, अनिरुद्ध ले विस्तार
प्रभु लो शरण, जीवन- मरण, से हो सहज उद्धार.....

यहाँ भी दूसरे पद का तृतीय चरण पिछले चरणों पर अपनी निर्भरता दिखा रहा है.

इस पद को यदि यों कहा जाय तो विभक्तियों से चरण को प्रारंभ करने की समस्या समाप्त हो जायेगी --

प्रभु के शरण, जीवन-मरण, पाता सहज उद्धार.. .

ऐसा निवेदन कोई उद्धृत नियम न हो कर मान्यता ही है.

यह अवश्य है कि इस प्रयास के लिए हार्दिक बधाइयाँ.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on April 26, 2013 at 6:46pm

आदरणीय लून करन छज्जर जी 

//गुरु के प्रति समर्पण ही मोक्ष का मार्ग बन सकता है//

गुरु चरणों में समर्पण ही मानव मन को अहंकार से मुक्त कर सद्ज्ञान का सुपात्र बनाता है... इस रचना के मर्मज को इंगित करने के लिए आपकी आभारी हूँ. सादर.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on April 26, 2013 at 6:43pm

आदरणीय प्रदीप जी,

मंच पर सीखने के अनेक अवसर सुलभ है... पर सीखता वही है जो सीखने की प्रबल चाह रखता है... यह छंद रचना आपका आशीर्वाद पा सकी, इसलिए आभारी हूँ. सादर.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on April 26, 2013 at 6:40pm

आदरणीय लक्ष्मण जी,

नव्यता ही जीवन में विविधता के स्फूर्तिदायक रंग भरती है और सुहाती है... और यहाँ मंच पर हमेशा ही नए नए छंद हम सब एक दुसरे से सीखते सीखते समवेत बढ़ते चलते हैं... यह छंद झूलना पर गुरु वंदन आपको पसंद आया इस हेतु आपकी आभारी हूँ..

//"उज्ज्वल वचन, का ईश दो आधार" और "जीवन- मरण, से हो सहज उद्धार" में मध्य में , (कौमा) अनिवार्य है

क्या ?//

अल्पविराम यति के स्थान पर ही लगाया गया है..जिससे रचना को उच्चारित करते समय स्वतः ही एक गेय धुन पर पाठक इसे गुनगुनाता चले.

सादर. 

Comment by LOON KARAN CHHAJER on April 26, 2013 at 5:04pm

गुरु के प्रति समर्पण ही मोक्ष का मार्ग बन सकता है .

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 26, 2013 at 1:33pm

आदरणीया प्राची जी 

सादर अभिवादन 

बस वही एक बात कि सीखने के पर्याप्त अवसर दे रही हैं आप. 

बधाई, आभार 

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on April 26, 2013 at 10:32am

ओबीओ ही एक मात्र मंच है जहा नए नए छंद पढने को मिलते है | इसकेलिए ओबीओ और नए नए छंद विधा 

के प्यासे विद्वजन बहाई के पात्र है | गुरु वंदन (छंद झुलना) रचना के लिए हार्दिक बधाई डॉ प्राची जी | हां इसमें

"उज्ज्वल वचन, का ईश दो आधार" और "जीवन- मरण, से हो सहज उद्धार" में मध्य में , (कौमा) अनिवार्य है

क्या ?


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on April 26, 2013 at 8:37am

आदरणीय अशोक कुमार रक्ताले जी 

छंद झूलना आपको पसंद आया यह जाना उत्साहवर्धक है... जब इस प्रकार सब छंदों पर रूचि प्रकट करते हैं, तब ही रचना धर्मिता को आगे बढने की प्रेरणा मिलती है...

छंद झूलना में किसी भी पद में अंतर्गेयता के लिए यति के स्थान पर तुकांतता की अनिवार्यता का विधान नहीं है...यह मैंने अपनी ही अभिव्यक्ति में नवीनता के लिए लिया है. यहाँ तक की चारों पंक्तियों के अंत में भी सम्तुकान्ताता की बाध्यता नहीं है, दो-दो पंक्तियों में तुकांतता ली जा सकती है 

सादर

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