तुम, मेरी पहचान !
तुम अति-सुगम सरल स्नेह से मेरी
प्रथम पहचान
मेरे कालान्तरित काव्य की
अंतिम कड़ी,
गीतों की गमक में
छंद और लय बने ....
पूर्णिमा की रात मेरे लिए तुम
चमकते तारों का कारण हो ।
सुनती हूँ, तुम देस-परदेस
रात के उलझे पहरों में
मुझको,
मेरी परिकीर्ण पीड़ा की
परिकल्पना को जी रहे हो ।
तुम्हारे अपने दर्द कुछ कम हैं क्या ?
.......कि मेरी पीड़ा से आकृष्ट,
तुम चिंतित क्षण-क्षण,
निष्कपट मित्र-भाव से मेरे
घिरे हुए असीम को जी रहे हो ?
मैं यहाँ अपनी पीड़ा के
अंतवर्ती विस्तार में अटकी,
तुम
मेरी पीड़ा की पराकाष्ठा से अनभिज्ञ,
इस बहती पीड़ा की प्रसमता में,
उसकी गति में,
तुम रूकावट न बनो ।
नये प्रतीकों और बिम्बों से बहलाते,
मुझको जीवितता का आभास न दो,
कि मैं इस पथ पर पहले से पराभूत,
निज मान्यताओं को कुचल-कुचल,
सर्व-सामान्य का अभिनय करती
जीने के कितने स्वांग रचा चुकी हूँ,
और सच, अब यह क्रिया
अभिनय नहीं,
मेरे जीने की कटु वास्तविकता है ।
मान्यताओं का चुनाव, और
सर्व-सामान्य जीवन का
जन्म-सिद्ध अधिकार
अब मेरे परास में नहीं है ।
तुम अपनी नींदों को यूँ
रात की स्याही में डुबो कर
मेरी पीड़ा से सम्बद्ध, इस तरह
रह-रह कर और मत गलो ।
------
- विजय निकोर
Comment
// मनोभावों की सुन्दर अभिव्यक्ति //
प्रोत्साहन के लिए आपका आभारी हूँ, आदरणीया प्राची जी।
सादर,
विजय
आदरणीय केवल प्रसाद जी:
//अतिगंभीर भाव और अतिसुन्दर रचना ।//
कविता की सराहना के लिए आपका शत-शत आभार।
सादर,
विजय निकोर
आदरणीया मित्र कुंती जी:
//यह पीड़ा भी भाग्यशाली लोगों को ही मिलती है ....जो हमें ईश्वर तक जाने का मार्ग प्रशस्त
करती है...। प्रिय मित्र विजय जी , आपने अत्यंत श्रेष्ठ एवम सात्विक रचना हमें दी है....धन्यवाद जैसा शब्द इस की गरिमा को लघुता प्रदर्शित करेगा ... मैं नहीं चाहती //
आपने मेरी रचना के मर्म को छू कर अपनी प्रतिक्रिया के कोमल भावों से मुझको जो प्रोत्साहन दिया है, उसके लिए शत-शत आभार। आशा है, ऐसे ही मनोबल बनाए रखेंगे। आपकी सराहना मेरे लिए आशीर्वाद है।
सादर और सस्नेह,
विजय निकोर
आदरणीय प्रदीप जी:
//sundar bhaav yukt rachna hetu badhai.//
रचना की सराहना के लिए हार्दिक आभार।
सादर,
विजय निकोर
आदरणीय लक्ष्मण जी:
//प्रेम की अनुभूति, प्रेम की पराकाष्ठा दर्शाती सुन्दर भावों की रचना//
आपकी प्रतिक्रया उत्साहवर्धक और प्रेरक है मेरे लिए -
हार्दिक धन्यवाद ।
सादर और सस्नेह,
विजय निकोर
आपने कहा .. //इस कथन को क्या ही सुन्दर अभिव्यक्ति मिली है आपके शब्दों में//
आपके सदभावी आशीर्वचनों के लिए हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय सौरभ जी
सादर,
विजय निकोर
तुम अपनी नींदों को यूँ
रात की स्याही में डुबो कर
मेरी पीड़ा से सम्बद्ध, इस तरह
रह-रह कर और मत गलो ।- वाह ! अपनी पीड़ा से अपने ही गलते है, पर दिल को कष्ट होता है | प्रेम की अनुभूति, प्रेम की पराकाष्ठा दर्शाती सुन्दर भावो की रचना | हार्दिक बधाई भाई श्री विजय निकोरे जी
आदरणीय विजय जी,
कोई चाह कर किसी प्रति अन्यमनस्क नहीं होता इस कथन को क्या ही सुन्दर अभिव्यक्ति मिली है आपके शब्दों में !
बहुत बहुत बधाई स्वीकारें, आदरणीय.
आदरणीय विजय निकोर साहब सादर, आपकी कम ही रचनाएं पढ़ी हैं किन्तु सभी में भावों का जो सम्प्रेषण है वह देखते ही बनता है. बहुत ही सुन्दर रचना.सादर हार्दिक बधाई स्वीकारें.
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online