माँ ... श्रध्दांजलि !
(पावन माँ दिवस पर)
मैं प्राण-स्वपन तुम्हारा, तुमने सर्जन किया था मेरा,
कभी मैंने जन्म लिया था तुम्हारे पावन-अंदर,
और अब विदा के २६ साल उपरान्त भी आज
तुम जी रही हो प्रतिदिन, प्रतिपल मेरे अंदर।
माँ, देखो मुझको, पहचानो, इन भयानक वीरानों में भी,
सामने तुम्हारे खड़ा, आराधना में झुका हूँ नत-मस्तक,
स्वीकार करो, माँ, मेरा यह श्रध्दावनत चरण-वन्दन।
अनगिन स्वर्णिम रातों की स्मृतियाँ तुमसे बंधी हैं माँ,
जब काम से दिन भर की थकन का बोझ लिए
रात के किसी भी पहर मैं आता था देर से घर,
और तुम घंटों बैठी जोह रही होती थी पथ मेरा,
किवाड़ खोलते ही आती सर्व-प्रथम वह आवाज़ तुम्हारी..
"ठीक हें?.. रख साँई दी... जींदा रहवें मेरा लाल" (पंजाबी)
(ठीक हो?.. भगवान तुम्हारे साथ हों.. जीते रहो मेरे लाल)
शहद-सी मीठी आवाज़ अब चिपक गई है इन दीवारों से,
और दर्द-भरे अंधेरों में मेरे सिर में तड़फ़ड़ाते हैं कितने
मुठभेड़ करते, ज्वालामुखी सवाल, कितने प्रायश्चित, कि
ज़िन्दगी के स्वार्थों से घिरा, मैं अच्छा बेटा नहीं था।
तुमने तो एक बार भी कभी, कोई शिकायत नहीं की,
कह देती, कुछ भी शिकायत कर देती तो अच्छा था,
द्वंद्व के कुहरीले फैलावों में, स्वयं को कोसता न रहता।
आया वह उन्मूलक दिन जब तुम कुर्सी की बाँह पर गिरी,
एक हाथ में रोटी का कौर था, दूसरे में कटोरी थी काँपी।
तुम कहती रही,"न ले जाओ मुझको अस्पताल, न ले जाओ,
मुझको घर में ही मरने दो बेटा, मुझको नहीं है वहाँ पर मरना",
माँ, मुझको क्षमा करो, मैंने नही माना तुम्हारा अंतिम कहना।
क्या तुम्हारे प्राणों में माँ, अभी भी है मेरे आने की वही आस?
मैं आऊँगा, सच आऊँगा माँ, तुम्हारे प्राणों से बँधा तुम्हारे पास।
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-- विजय निकोर
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय विजय निकोर साहब सादर प्रणाम, बहुत ही सुन्दर और मार्मिक रचना, वह तन अपना समझ मरती रही, हम दायित्व अपना कर गुजरे. सादर बहुत बहुत बधाई स्वीकारें.
मर्मस्पर्शी रचना हुई है, आदरणीय विजय जी. नितांत व्यक्तिगत पलों की प्रस्तुति भावभीनी लगी.
सादर बधाई
आ0 विजय निकोर जी, अतिसुन्दर .अश्रुपूरित नयन से मां को श्रध्दांजलि...’शहद.सी मीठी आवाज़ अब चिपक गई है इन दीवारों से,.....’आया वह उन्मूलक दिन जब तुम कुर्सी की बाँह पर गिरी,
एक हाथ में रोटी का कोर था, दूसरे में कटोरी थी काँपी।
तुम कहती रही, ’न ले जाओ मुझको अस्पताल, न ले जाओ,
मुझको घर में ही मरने दो बेटाए मुझको नहीं है वहाँ पर मरना’
माँ, मुझको क्षमा करो, मैंने नही माना तुम्हारा अंतिम कहना।’
हमेशा लहलहाते खेतों का दर्शन सुहाता है। सर जी, हार्दिक बधाई स्वीकारें। सादर,
दिल को छू गई आप की रचना, बहुत मर्मस्पर्शि ....... बधाई
आदरणीय विजय निकोर जी, अत्यंत मर्मस्पर्शी कविता माँ के लिए...
बहुत मर्मस्पर्शि एक बेटे के दिल की पुकार.विजय जी एक माँ के प्रति हृदय से निकली श्रद्धांजली .भावों और शब्दों का संचय ,और भाषा शैली बहुत ही सुंदर ढंग से सजाया है.सादर / कुंती .
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