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चांद सितारे

चुप से हैं।

रात

घनेरी छाई है।।

 

तेज घनी

दुपहरिया में

अब अंगार बरसते हैं।

तपती

बंजर धरती पर

पांव धरें

तो जलते हैं।

पेड़ की

टूटी शाख पर

इक कोंपल

मुरझाई है।।

 

चिटक गयीं

दीवारे भी

छत से

बूंद टपकती है।

जमीं

सहेजी थी मैंने

मुझसे

दूर खिसकती है।

नयनों की

परतें सूखी

दिल में

सीलन छाई है।।

 

देखो

अब आशाओं के

पंख झड़े

तन सूख गए।

कितने कितने

सपनों के

श्वास से

संग छूट गए।

बस

टूटा बिखरा सा ये

जीवन

इक भरपाई है।।

          - बृजेश नीरज

 

(मौलिक व अप्रकाषित)

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Comment

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Comment by बृजेश नीरज on May 14, 2013 at 8:16pm

आदरणीय राजेश जी आपका बहुत आभार!

Comment by बृजेश नीरज on May 14, 2013 at 8:14pm

आदरणीय प्रदीप जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on May 14, 2013 at 8:13pm

आदरणीया कुन्ती जी आपका आभार!

Comment by vijay nikore on May 14, 2013 at 5:59pm

आदरणीय बृजेश जी:

 

सुन्दर मार्मिक अभिव्यक्ति के लिए बधाई।

 

सादर और सस्नेह,

विजय निकोर

Comment by ram shiromani pathak on May 14, 2013 at 3:58pm

आदरणीय भाई नीरज जी हार्दिक बधाई इस सुन्दर नवगीत के लिए \\\\सादर  

Comment by राजेश 'मृदु' on May 14, 2013 at 3:24pm

इस सुंदर नवगीत पर हार्दिक बधाई स्‍वीकार करें, सादर

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on May 14, 2013 at 1:35pm

देखो

अब आशाओं के

पंख झड़े

तन सूख गए।

कितने कितने

सपनों के

श्वास से

संग छूट गए।

बस

टूटा बिखरा सा ये

जीवन

इक भरपाई है।।

 सुन्दर भाव 

सुन्दर नव गीत 

सस्नेह बधाई , अनुज श्री जी 

Comment by coontee mukerji on May 14, 2013 at 11:05am

देखो

अब आशाओं के

पंख झड़े

तन सूख गए।

कितने कितने

सपनों के

श्वास से

संग छूट गए।

बस

टूटा बिखरा सा ये

जीवन

इक भरपाई है।..........जीवन की  अंतिम तस्वीर ! इंसान के पास और क्या रह जाता है ,श्वास से संग टूट जाता है . ...जीवनदर्शन. अति सुंदर नीरज जी . / सादर / कुंती .

Comment by बृजेश नीरज on May 13, 2013 at 11:38pm

आदरणीया सीमा जी
मैं उस्ताद तो नहीं बस आप लोगों से सीख रहा हूं।
आपने जो सुझाव दिए हैं वो उचित ही हैं। एक को मैंने इक लिखा था लेकिन शायद टाइप करते समय मुझसे गलती हो गयी।
श्वासों उचित ही है लेकिन मात्रा बराबर रखने के लिए श्वास किया था।
आपने जो हिम्मत बंधायी है उसके लिए हार्दिक आभार!
सादर!

Comment by seema agrawal on May 13, 2013 at 11:09pm

वाह आप तो उस्ताद हैं बृजेश जी बहुत सधा हुआ भावो से भरा नवगीत ....कष्ट के क्षणों को बहुत करीने से संयत शब्दों में बांधा गया है इस बंद में 

पेड़ की
टूटी शाख पर
एक कोंपल
मुरझाई है।।//को इक  कर दिया जाये तो ?

नयनों की

परतें सूखी
दिल में
सीलन छाई है....वाह विरोधाभास  को खूबसूरती से शब्द दिए हैं 

देखो
अब आशाओं के
पंख झड़े
तन सूख गए।.......वाह सुन्दर बिम्ब 

कितने कितने
सपनों के
श्वास से
संग छूट गए।/// श्वास  को श्वासों करके पढ़ कर देखिएगा 

बस
टूटा बिखरा सा ये
जीवन
इक भरपाई है।।.................निराशा की पराकाष्ठा को इंगित करती ये पंक्तियाँ भाव  व्यक्त करने में सफल रही हैं 

कुल मिला कर एक सफल नवगीत 

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