14 पंक्तियां
पहली, तीसरी व दूसरी, चौथी तुकान्त का क्रम
तेरहवी व चौदहवीं पंक्ति तुकान्त
साढ़े तीन का पद
जब जब सूरज की किरनें पूरब में चमकी
जगत में छाया गहन तिमिर तब तब छंटता
लेकिन अंधियारा शेष रहा तो है बहकी
मन की पांखों के नीचे। पक्षी है फिरता
ढूंढे ठूंठों में बचे हुए जीवन के कण
पर न पत्ता है न फूल बचा बस वीराना
अब पायें कैसे सपन सरीखे सुख के क्षण।
बढ़ते बढ़ते यह प्यास बनी है इक झरना
तृप्ति की कोई आस नहीं, धूप है गहरी
एक मरीचिका सी चमकें ओस की बूंदें
इन किरनों में। तभी कौंध सी बिखरी
कि तुम आयी सहज समेटे तृप्ति की बूंदें
जैसे बहती अविरल धारा कल कल करती
इस थके पथिक में भी एक आस सी भरती।
Comment
आदरणीय रक्ताले जी आपका हार्दिक आभार!
इस विधा के विषय में बहुत तो नहीं जानता लेकिन जितना ज्ञान है उसे साझा कर रहा हूं। सुधीजन इसके विषय में और जानते हों तो बताने का कष्ट करें। इस विधा में अपनी रचना को पोस्ट करने का उद्देश्य ही था कि इस विधा पर चर्चा संभव हो सके और संपूर्ण जानकारी प्राप्त हो सके।
इसकी कहानी इटली में शायद शुरू हुई थी फिर अंग्रेजी से होती हुई हिन्दी में भी आयी। अंग्रेजी में शेक्सपियर ने इस विधा पर खूब काम किया है। अंग्रेजी सॉनेट में 14 पंक्तियां समान लंबाई की होती हैं जिन्हें तीन बंद या छंद( Stanza) में बांटा जाता है।
पहले 8 पंक्तियों का अष्टक (Octave) होता है जिसे 4 पंक्तियों के दो छंद (Stanza) में बांटते हैं। आखिरी छंद (Stanza) 6 पंक्तियों का होता है। जिसमें आखिरी की दो पंक्तियां समान्त (ends with couplet) होती हैं।
हिन्दी में सॉनेट पर सबसे महत्वपूर्ण कार्य त्रिलोचन शास्त्री जी ने किया। प्रांरभिक स्वरूप वैसा ही था जैसा कि अंग्रेजी सॉनेट का था। 14 पंक्तियों में ही कथ्य को बांधा। हर पंक्ति में 24 मात्राओं का प्रयोग किया। जैसा कि इस सॉनेट को देखें।
सॉनेट का पथ
इधर त्रिलोचन सॉनेट के ही पथ पर दौड़ा;
सॉनेट, सॉनेट, सॉनेट, सॉनेट; क्या कर डाला
यह उस ने भी अजब तमाशा। मन की माला
गले डाल ली। इस सॉनेट का रस्ता चौड़ा
अधिक नहीं है, कसे कसाए भाव अनूठे
ऐसे आएँ जैसे क़िला आगरा में जो
नग है, दिखलाता है पूरे ताजमहल को;
गेय रहे, एकान्विति हो। उस ने तो झूठे
ठाटबाट बाँधे हैं। चीज़ किराए की है।
स्पेंसर, सिडनी, शेक्सपियर, मिल्टन की वाणी
वर्ड्सवर्थ, कीट्स की अनवरत प्रिय कल्याणी
स्वर-धारा है, उस ने नई चीज़ क्या दी है।
सॉनेट से मजाक़ भी उसने खूब किया है,
जहाँ तहाँ कुछ रंग व्यंग्य का छिड़क दिया है।
बाद में उन्होंने इस विधा में बहुत प्रयोग किए। कुछ सॉनेट में साढ़े तीन का पद तो कहीं डेढ़ का पद रखा। कहीं पहली दूसरी का तुकान्त रखा तो कहीं पहली तीसरी का तुकान्त रखा लेकिन प्रत्येक दशा में तेरहवीं व चैदहवीं पंक्ति समान्त थी। एक बात जो अति महत्वपूर्ण थी कि उनके सॉनेट में गेयता सदैव उच्च कोटि की रही। उनके एक सॉनेट को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत कर रहा हूं।
हम दोनों हैं दुखी
हम दोनों हैं दुखी। पास ही नीरव बैठें,
बोले नहीं, न छुएं। समय चुपचाप बिताएं,
अपने अपने मन में भटक भटककर पैठें
उस दुख के सागर में जिसके तीर चिताएं
अभिलाषाओं की जलती हैं धू धू धू धू।
मौन शिलाओं के नीचे दफना दिये गये
हम, यों जान पड़ेगा। हमको छू छू छू छू
भूतल की ऊष्णता उठेगी, हैं किये गये
खेत हरे जिसकी सांसों से। यदि हम हारें
एकाकीपन से गूंगेपन से तो हमसे
सांसें कहें, पास कोई है और निवारें
मन की गांस फांस, हम ढूंढें कभी न भ्रम से।
गाढ़े दुख में कभी कभी भाषा छलती है
संजीवनी भावमाला नीरव चलती है।
मैंने एक प्रयोग की तरह इस सॉनेट को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। जिन मानकों पर अपनी बात को कहने का मैंने प्रयास किया है उसका उल्लेख रचना के प्रारंभ में है। यहां रचना को मैंने छंद (Stanza) में नहीं बांटा है। आदरणीय गुरूजनों से आग्रह है कि इस विधा के बारे में और रचना को निभाने में कितना सफल हुआ हूं इस संबंध में मार्गदर्शन प्रदान करें।
आदरणीय बृजेश जी सादर, "सानेट" इस अनूठी विद्या से परिचित कराने के लिए आपका हृदयातल से आभार.इस पर कुछ और प्रकाश डालें तो कृपा होगी. सुन्दर रचना के लिए बधाई स्वीकारें.
आदरणीय लाडलीवाल जी आपका बहुत आभार!
आदरणीय अभिनव जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय राजेश जी आपने जो मेरा उत्सावर्धन किया है उसके लिए आपका हार्दिक आभार!
सुन्दर प्रस्तुति विशेषतः ये पंक्तिया जो इस रचना की जान है -
जैसे बहती अविरल धारा कल कल करती
इस थके पथिक में भी एक आस सी भरती।----बहुत सुन्दर बधाई भाई श्री बृजेश नीरज जी
अप्रचलित भाव की इस रचना से आनंदित हूँ श्री ब्रिजेश जी . बहुत सुन्दर . बधाई आपको !
इस विधा पर आपकी प्रस्तुति को बारंबार नमन । हिंदी में सॉनेट की परंपरा मृतप्राय सी है एवं इस विधा में लिखने वाले उंगलियों पर गिनने वाले लोग ही है, पहले तो लोग इसे समझना ही नहीं चाहते एवं जो समझते हैं उनका प्रयास इतना अत्यल्प है कि गगन से गिरी एक बूंद । इस रचना पर आपको हार्दिक बधाई देता हूं, सादर
श्रीराम भइया आपका आभार!
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online