जिन्दगी तुमसे लड नहीं पाया ।
हमने आख़िर में ख़ुद को समझाया।।
कुछ नहीं आदमी के हाथों में,
मरते-मरते ये सबने समझाया।।
जिन्दगी भर गरूर रहता है,
मौत के वक़्त ये नहीं पाया।।
जिन्दगी हर कसौटी पर जी,ली,
इसलिये राम,राम कहलाया।।
आदमी लालची ही होता है,
भूल जाता है राम की माया।।
मैं बहकता रहा हूँ उतना ही,
आपने मुझको जितना बहकाया।।
रात से हमको मिलती शीतलता,
रात ने शांत रहना सिखलाया।।
प्रेम परमात्मा से उपजा है,
प्रेम है आत्मा की प्रतिछाया।।
...सूबे सिंह "सुजान"
यह ग़ज़ल मौलिक व अप्रकाशित है। आप सब प्रभुत्वजनों को समक्ष प्रस्तुत है।
Comment
आदरणीय सुबेसिंह सुजान जी सादर सुन्दर सरल और सीधी सी गजल.
वीनस केसरी.. जी आपका आभारी हूँ। आपकी प्रतिक्रिया पर आपका धन्यवाद करता हूँ।
annapurna bajpai..आपकी प्रतिक्रिया पर आपका धन्यवाद
Sanjay Mishra 'Habib'....आपका धन्यवाद
अरुन शर्मा 'अनन्त'....धन्यवाद
बहुत खूब सुजान जी क्या कहने
भई वाह !!!!
मैं बहकता रहा हूँ उतना ही,
आपने मुझको जितना बहकाया।।
रात से हमको मिलती शीतलता,
रात ने शांत रहना सिखलाया।।
बहुत बढ़िया गज़ल हेतु बधाई ।
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